परमात्म दर्शन
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
[ संशोधित एवं परिवर्द्धित ] 
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सतलोकवासी पूज्यपाद स्वामी 
श्री श्रीधर दासजी महाराज
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रकाशक : अखिल भारतीय संतमत-सत्संग-प्रकाशन-समिति  
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट पत्रालय-बरारी, भागलपुर-३ (बिहार)
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अनुक्रमणिका 


परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता से भी परे है। प्रश्न है, उनके दर्शन कैसे हो और इसके लिए ‘कहाँ’ और ‘किस रास्ते’ चला जाय? इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर संत सद्गुरु ही दे सकते हैं। वे सच्चे मार्गदर्शक और सद्युक्ति से परमात्मा का साक्षत्कार कराने में समर्थ होते हैं।
संत सद्गुरु महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज अपने परम पूज्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के चरणों में बैठकर तथा अपनी अंतस्साधना की सिद्धि प्राप्त कर जगत के जन-जन तक वह सद्युक्ति पहुँचा रहे हैं, जो हमें परमात्मा के दर्शन करा सकती है। इनकी और इनके गुरु की वाणी एक ही है। दोनों के विचार में भिन्नता या विभेद नहीं।
शिष्यत्व की चरम सीमा को प्राप्त कर्म, विवेक और शक्ति से समर्थ संतसेवी महाराज सत्य पथ के राही, सदैव चिंतनशील और प्राणिमात्र के लिए करुणा एवं प्यार से परिपूर्ण हैं। प्रस्तुत पुस्तक में इनके कुछ सत्संग-प्रवचनों का संग्रह किया गया है। आशा है, पाठक इन प्रवचनों से लाभ उठाकर अपने सत्याचरण द्वारा इहलोक और परलोक-दोनों कल्याणमय बना सकेंगे।


मंगल मूरति सतगुरु, मिलवैं सर्वाधार।
मंगलमय मंगलकरण, विनवौं बारम्बार।।
धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय।
जो कछु कहुँ तुम्हरी कृपा, मोते कछु न बसाय।।
समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति में मानव का हित निहित है। आज कुछ ऐसे भ्रामक विचार का प्रचार हो रहा है कि ईश्वर-प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं। इस विषय की पुष्टि के उनका कथन है कि ‘जैसे करणाल आने के लिए उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम और चारों कोनों से यानी सभी तरफ से रास्ते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए भी सब तरफ से रास्ते हैं यानी बहुत रास्ते हैं।’ उन सज्जनों से मेरा निवेदन है कि वे इस विषय का गम्भीरता-पूर्वक मनन करने का कष्ट करें कि करणाल इस स्थूल संसार में हरियाणा प्रान्त के अन्दर एक स्थान पर अवस्थित है। उसके सभी ओर अवकाश है। इसलिए सभी ओर से लोग करणाल आते हैं; किन्तु क्या परमात्मा भी बाह्य जगत में कहीं एक स्थान पर अवस्थित है, जिसके सभी ओर अवकाश है, जिससे कि सभी ओर से लोग उसके पास जाएँगे।
परमात्मा स्वरूपतः अव्यक्त, अनन्त, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता से भी परे है। अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर अपनी सूक्ष्मता के कारण सबके बाहर और सबके भीतर विद्यमान है।
हम बाहर में जो कुछ ग्रहण करते हैं, वह इन्द्रियों से। वह परमात्मा इन्द्रियातीत है। इसलिए बाहर में उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अपने अन्दर-अन्दर चलने से इन्द्रियों से छूटना होता है। जहाँ सभी इन्द्रियों से हम छूट जाएँगे, वहीं परमात्म-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। इसलिए यह स्पष्ट है कि परमात्मा की प्राप्ति अपने अन्दर होगी, बाहर में नहीं।
पुनः जब हम संतवाणी का अध्ययन-मनन करते हैं, तो पाते है कि ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता एक ही है, एक से अधिक नहीं। हम वैदिक हों या अवैदिक, ईसाई हों या इस्लाम, जैन हों या बोद्ध, सिक्ख हों या यहूदी-कुछ भी हों, किसी भी जाति-पाँति के हों, धनी या गरीब हों, विद्वान या अविद्वान हों अथवा किसी भी तरह के कोई मानव क्यों न हों, परमात्मा ने सबकी रचना एक-सी की है। चाहे कोई किसी देश का हो वा किसी वेश का आदमी हो, सबके लिए परमात्मा में एक-सा न्याय बरता है। सभी लोग मुँह से ही भोजन करेंगे। भोजन करने का रास्ता एक ही है और वह है मुँह। देखने का रास्ता एक है और वह आँख। सुनने का रास्ता एक है और वह है नाक। इसी तरह स्पर्श करने का साधन है त्वचा। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों से हम पाँच विषयों को ग्रहण करने का रास्ता नियुक्त है। इसी तरह ईश्वर-भजन करने का रास्ता भी एक ही है और उस ईश्वर को पाने का रास्ता भी एक ही। अब सोचने की बात है कि ईश्वर कहाँ है, जहाँ जाकर हम उसको प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर को कौन प्राप्त करेगा तथा ईश्वर स्वरूपतः है क्या-इन बातों की जानकारी होनी चाहिए। संत कबीर साहब ने ईश्वर-स्वरूप के सम्बन्ध में कहा है-
जो दीसै सो तो है नाहीं, है सो कहा न जाई।
सैना बैना कहि समुझावौं, गूँगे का गुड़ भाई।।
‘ जो दीखता है अर्थात् जो नेत्र इन्द्रिय से ग्रहण होता है, वह परमात्मा नहीं है, वह परमात्मा की माया है और जो है, वह कहा नहीं जा सकता।’ क्योंकि वह वाणी का विषय नहीं है। वास्तव में वह इन्द्रियातीत है, अगोचर है, सर्वव्यापक है और सर्वव्यापकता के भी परे है। इसलिए जो वाणी का विषय नहीं है, उसको वाणी के द्वारा कैसे समझाया जा सकता है?
एक शिकार शिकार खेलने के लिए जंगल गया। उसने एक हिरण पर वाण चलाया। वाण लगते ही वह हिरण अपने प्राण लेकर भागा। उसी जंगल में एक साधु बाबा की कुटिया थी, जिसमें साधु बाबा बैठे हुए थे। हिरण चौकड़ी भरता हुआ साधु बाबा के आगे से निकल गया। और एक झाड़ी में छिप गया। पीछे से शिकारी उसकी खोज करता हुआ आया। आते-आते साधु बाबा पहुँचा और पूछा-महात्मन्! आपने एक शरविद्ध हिरण को भागते देखा है? महात्माजी सोचने लग गये-जीवन में कभी झूठ बोला नहीं; अगर मैं झूठ बोलता हूँ, तो महापातक होता है। गोस्वामीजी ने लिखा है-
नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होइ कि कोटिक गुंजा।।
झूठ बोलना ठीक नहीं है। अगर मैं सत्य कहता हूँ, तो एक निरपराध प्राणी की हत्या हो जाएगी और हिंसा का पाप मुझे लग जाएगा। जहाँ ‘अहिंसा परमो धर्मः’ है, वहाँ हिंसा करवाकर मैं पाप का भागी बनूँगा। साधू बाबा को न तो सत्य बोलते बनता है और न झूठ बोलते ही। क्या किया जाय? साधु बाबा थे बड़े प्रत्युत्पन्नमति। उन्होंने कहा-’ भाई व्याध! जिसने देखा है, वह बोल नहीं सकता है और जो बोल सकता है, उसने देखा नहीं। मैं क्या कहूँ? अर्थात् हिरण को भागते हुए देखा है नेत्र ने। नेत्र तो बोल सकता नहीं, बोलेगा मुँह; लेकिन मुँह ने तो देखा ही नहीं।
इसी प्रकार परमात्मा को तो प्राप्त जीवात्मा करता है, चेतनात्मा करती है। मगर चेतन आत्मा तो बोलती नहीं है, बोलता है मुँह। मुँह ने तो कभी परमात्मा का दर्शन किया ही नहीं। तब परमात्म-स्वरूप के विषय में मुँह से क्या कहा जा सकता है? इसलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय।।
जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं।
सुनै सो समझावै नहिं, रसना दृग सरवन काहि।।
तात्पर्य यह कि देखती है आँख; लेकिन आँख बोलती कुछ नहीं; कहती है जिभ्या, लेकिन जिभ्या देखती नहीं। इसलिए ‘कहै सो देखै नाहिं’ कहा। और ‘सुनै सो समझावै नहिं’ कहने का आशय है-सुनता है कान। किन्तु कान किसी को कुछ समझाता नहीं। सन्त कबीर साहब कहते है कि रसना, दृग और श्रवण-तीनों एक साथ किसको है? इसलिए ईश्वर-स्वरूप निगूढ़ तत्त्व है। वह सूक्ष्मतम होने के कारण सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक तत्त्व कहाँ है और कहाँ नहीं है? अर्थात् सर्वत्र है। जो सर्वत्र है, तो सर्वत्र होने के कारण वह हमारे भीतर भी है। गुरु नानक देवजी महाराज ने फरमाया है-
सब किछु घर महि बाहरि नाहीं।
बाहरि टोलै सो भरमि भूलाहीं।।
पुनः कहा-
इस गुफा महि अखुट भंडारा।
तिसु बिचि बसै हरि अलख अपारा।।
आपे गुपुत परगट है आपे।
गुर सबदि आप वंञावणिआ।।
अर्थात् आपके अन्दर अघट भण्डार भरा पड़ा है। सब कुछ के सहित परम प्रभु परमात्मा भी विराजमान है। फिर भी हम अपने प्रभु को देख नहीं पाते।
है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्व।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द।।
जिस तरह किसी की आँख में मोतियाबिन्द की बीमारी हो जाती है, तो नजदीक में चीज रहने पर भी उसको वह सूझती नहीं है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा हमारे निकटतम रहने पर भी हमे दीखता नहीं। मोतियाबिन्द का ऑपरेशन डॉक्टर कर देते हैं। नेत्र के उपर जो आवरण हो जाता है, उसको वे हटा देते हैं। फिर आँख देखने लग जाती है; उसी प्रकार चेतन आत्मा के ऊपर जो जड़ का आवरण हो गया है, उस आवरण को हटाने के लिए सन्त सद्गुरुरूपी डॉक्टर के पास जाना होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
सद्गुरु बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न विषय कै आसा।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी।।
एहि विधि भलेहि सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।
कितना भी उपाय कर लो, यह रोग दूर होने को नहीं है। इसलिए सन्त सद्गुरु की शरण जाओ। तभी तुमको भव-रोगों से मुक्ति मिलेगी, अन्यथा नहीं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने तो बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है-
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं कि अपने जन्म को यूँ ही व्यर्थ खो दिया, अगर सच्चे सद्गुरु के दर्शन तुमको नहीं हुए। तुम्हारा जीवन व्यर्थ का चला गया। वैसे राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु आदि ईश्वर-वाचक शब्द सभी कोई कहते हैं; बहुत अच्छी बात है। लेकिन कहने की कला को जानकर कहो, तो अत्युत्तम हो।
एक साधु बाबा थे। वे मधुकरी वृत्ति से जीवन-यापन करते थे। जिस दरवाजे पर पे जाते तो कहते-’ राम-राम करे, भव-सागर तरे।’ प्रतिदिन इसी भाँति लोग भोजन के समय उनको रोटियाँ खिला देते। साधु बाबा खाकर मस्त रहते और भगवान का नाम लिया करते-दुनियादारी की कोई फिक्र नहीं। एक दिन ऐसे घूमते-घामते वे एक दरवाजे पर पहुँचे। उस दरबाजे पर एक सुग्गा पिंजड़े में बैठा हुआ था। गृहपति ने उसे पाल रखा था। साधु बाबा ने कहा-’ राम-राम करे, भव सागर तरे।’ तो पिंजड़वाले सुग्गे ने कहा-’ राम-राम करे, लौह-पिंजर पड़े।’ साधु बाबा ने पूछा-’ अरे! तू क्या बोलता है?’ सुग्गे ने कहा-’ बाबा! आप क्या कहते है?’ साधु बाबा ने कहा-’ मैं तो कहता हूँ कि राम-राम करे, भव-सागर तरे।’ पिंजड़ेवाले सुग्गे कहा-’ मैं तो कहता हूँ कि राम-राम करे, लौह-पिंजर पड़े।’ साधु बाबा ने पूछा, ‘ऐसा तू क्यों कहता है?’ पिंजड़ेवाले सुग्गे ने कहा-’ बाबा! आप किसी किताब में पढ़े होंगे कि राम-राम कहने से भव-सागर तरता है। आपका जो ज्ञान है, वह तो श्रवण-मनन का ज्ञान है और मेरा अनुभव ज्ञान है। आप प्रत्यक्ष देखते हैं कि मैं राम-राम कहता हूँ, तो लौहे के पिंजड़े में पड़ा हुआ हूँ और जो सुग्गा राम-राम नहीं कहता, वह स्वतंत्र विचरण करता है। जहाँ उसका मन होता है, वहाँ वह उड़ता है, जहाँ जो खाना चाहता है, वहाँ वह खाता है; जब मन उड़ने का होता है, तो उड़ता और बैठने का मन होता है, तो बैठता है। एक अभागा सुग्गा में ही हूँ, राम-राम करते हुए लौहे के पिंजड़े में जकड़ा पड़ा हूँ। इसलिए अब से आप यह कहा कीजिए कि ‘राम-राम करे, लौह-पिंजर पड़े।’ इसको भूल जाइए कि भव-सागर तरे।’ साधु बाबा ने कहा-’ अरे! तुम मुझको ज्ञान सिखलाते हो! राम-राम तो तुम कहते हो; लेकिन कहने की युक्ति जानते हो? राम-राम कहने की युक्ति जानकर कहोगे, तो पिंजड़े से मुक्ति मिल जाएगी।’ कबीर साहब ने कहा है-
नाम रटे क्या पाइये, जो हिरदा नाहिं समाय।
कोटिक गुन सुगना रटे, अन्त बिलाई खाय।।
सुग्गा राम-राम तो कहत है; लेकिन जब बिल्ली उसकी गर्दन को पकड़ती है, तो मुँह से टाँय-टाँय के सिवा और कुछ आवाज नहीं निकलती। उसी तरह से मुँह से हम राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, सतनाम आदि सब कुछ कहते हैं; लेकिन जब यमराज आता है, तो ‘हाय रे बाप, हाय रे माय, हाय रे धन, हाय रे दौलत, हाय रे बेटा!’ आदि के सिवा और कुछ मन में आता ही नहीं। अन्त समय में भगवान का नाम कैसे आवेगा, इसकी युक्ति जानिए, तब मरने के समय में वह नाम याद आवेगा। हाँ, तो मैं पिंजड़ेवाले सुग्गे की कहानी कह रहा था। सुग्गे ने कहा-’ बाबा! मैं युक्ति नहीं जानता, कृपा करके युक्ति बतलाने का कष्ट करें।’
साधु बाबा ने सुग्गे से कहा-’ अच्छा, मालूम नहीं है, तो तुमको मैं युक्ति बतला देता हूँ। साधु बाबा ने सुग्गे को युक्ति बतला दी। सुग्गा उसका अभ्यास करने लग गया। करते-करते कुछ दिनों के बाद उसका प्राण-स्पन्दन निरुद्ध होने लगा। एक दिन वह क्रिया करके पिंजड़े में पड़ा हुआ था। गृहपति उसको कुछ खिलाने के लिए आया, तो वह देखता है कि सुग्गे की श्वास-गति बन्द है। उलटा-पलटा कर देखने पर उसको प्रतीत हुआ कि सुग्गा मर गया है। उसने पिंजड़े से सुग्गे को निकालकर बाहर फेंक दिया। जैसे ही सुग्गा पिंजड़े से बाहर निकला, वह फूर्र से उड़ गया।
यह तो एक कथा है। लेकिन इसके साथ वास्तविकता क्या है? गुरु गोरखनाथजी महाराज ने कहा है-
सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं जुगति बिन सूवा।
सतगुरु मिलै त उबरै बाबू, नहिं तौ परलै हूवा।।
हमलोगों का यह शरीर सात धातुओं से बना है-रक्त, रस, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य। इन सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर पिंजड़े के समान है। इस पिंजड़े में जीव-रूप सुग्गा बैठा हुआ है। इसको राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, सतनाम, हरे कृष्ण, हरे राम, सीता राम, राधेश्याम आदि जो शब्द जपने के लिए सिखला दिया गया है, वह बोलता है; लेकिन जब मौत-रूप बिल्ली उसकी गर्दन धर दबाती है, तब वह भगवान को भूल जाता है। उस समय उसको दुनियादारी याद आती है। परिणामस्वरूप मरने के पश्चात् वह दुर्गति को प्राप्त करता है। संत गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-’ सतगुरु मिलै त उबरै बाबू’ अर्थात् तुमको सच्चे सद्गुरु के दर्शन हो जायँ, उनकी तुम शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर लो, तदनुकूल तुम उसको अपने आचरण में उतारो, तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्रलय में तो पड़े हुए हो ही। ईश्वर के बारे में सभी संत और सद्ग्रन्थ कहते है कि वह ईश्वर हमारे सर्वत्र है। वह सर्वत्र है, तो हमारे अन्दर भी है। जब ईश्वर हमारे अन्दर है, तब उसको बाहर खोजने के लिए क्यों जायँ? सन्त कबीर साहब कहते हैं-
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय।
तेरा साहब तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय।।
ज्यों नैनन में पूतरी, यों खालिक घट माहिं।
मूरख लोग ने जानहीं, बाहर ढूँढन जाहिं।।
जो बाहर ढूँढने के लिए जाते हैं, वे मूर्ख हैं। मूर्ख में और अनपढ़ में भेद है। कबीर साहब अनपढ़ थे; लेकिन मूर्ख नहीं थे, बहुत बड़े विद्वान थे। आज सिगरेट के डब्बे पर लिखा हुआ हम पढ़ते हैं-’ सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।’ फिर भी हम पीते हैं। इस दृष्टि से हम मूर्ख हैं या विद्वान, विवेक-दृष्टि से अपना अवलोकन कर। कबीर साहब मृग की उपमा देकर बतलाते हैं कि जिस तरह मृग की नाभि में कस्तूरी है; लेकिन वह उसे बाहर ढूँढता है। बाहर ढूँढ़ते उसका जीवन समाप्त हो जाएगा; लेकिन कभी उसको कस्तूरी से भेंट नहीं होगी। उलटकर वह अपनी ओर देखे, तो उसको अपने ही शरीर में नाभि में कस्तूरी का पता चल जाएगा। संत कबीर साहब की भाँति कस्तूरी मृग की उपमा गुरु नानक देवजी महारज भी देते हैं।
घर ही महि अंस्त्रित भरपूर है, मनुखा सादु न पाइआ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै, भ्रमदा भरम भुलाइआ।।
अंस्त्रितु तजि विखु संग्रहै, करतै आपि खुआइआ।
गुरमुखि विरले सोझी पाई, तिना अन्दरि ब्रह्मु दिखाइआ।।
जिनको गुरु की प्रसादी मिली हुई है-कृपा मिली हुई है, वे ही अपने अन्दर ब्रह्म को देख सकते हैं। हम तुलसीदासजी महारज से पूछते हैं, तो वे अपने अनुभव की बीती बात बताते हैं-
एहि तें में हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो।।1।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो।।2।।
ये भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हुए कहते हैं कि जिस तरह से कुरंग की अर्थात् मृग की नाभि में कस्तूरी है; लेकिन वह अज्ञ है, जानवर है, बाहर-बाहर खोजता है-गिरि, तरु, लता, भूमि, विल आदि न जाने कहाँ-कहाँ खोजता है। लेकिन क्या गिरि, तरु, लता, भूमि, विल में कस्तूरी मिलेगी? कस्तूरी तो उसके अंग-संग मौजूद है। वह अपने अंग-संग में ही मिलेगी। तुलसीदासजी कहते हैं कि जबतक मैं बाहर भटकता रहा, तबतक उसी मृग के समान भ्रमित रहा; लेकिन जब सन्त सद्गुरु के दर्शन हुए, उनसे सद्युक्ति मिली, स्वयं साधना की, तो अपने में अपने प्रभु को पाया। जब भक्तप्रवर श्रीसूरदासजी महाराज की सुनिए, वे क्या कहते हैं-
अपुनपौ अपुन ही में पायी।
शब्दाहि शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी, ढूँढत फिरत भुलायो।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो।।
श्रीसूरदासजी महाराज भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हैं। हम संत दादू दयालजी महाराज से पूछें कि इस विषय में उनका क्या अभिमत है-
सब घट में गोविन्द है, संगि रहै हरि पास।
कस्तूरी मृग में बसै, सूँघत डोलै घास।।
ये भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हैं। इस तरह सभी संतों की वाणियों में हम साम्य पाते हैं। सभी संत परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति अपने अन्दर बतलाते हैं।
अन्त में हम अपनी जिज्ञासा का समाधान पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज से करवाना चाहेंगे। उनकी वाणी में उनकी अनुभूति बोलती है। वे बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-हे सज्जन! परम प्रभु परमात्मा की खोज अपने अन्दर करो वे अपने अन्दर विराजमान हैं। खोजने की कला यह है कि अपनी युगल दृष्टि-धारों को एक करके तिलद्वार तक ले आओ। वहाँ केन्द्र में केन्द्रित करो। अपने अन्दर पाँच केन्द्र हैं। पाँचो केन्द्रों के शब्द ही पाँच नौबत के नाम से विख्यात हैं।
अपने शरीर के अन्दर पाँच केन्द्र हैं। पाँचो केन्द्रों के शब्द ही पाँच नौबत कहलाते हैं। प्रथम केन्द्र के शब्द के सहारे अर्थात् उसके आकर्षण से आकर्षित होकर सुरत द्वितीय केन्द्र में पहुँचेगी; क्योंकि ऊपर के केन्द्र पा आता है। इस प्रकार नादानुसंधान की साधना से क्रमशः सुरत पाँचवें केन्द्र पर पहुँचती है, जहाँ जड़ के सभी आवरण झड़ जाते हैं। उस जड़-विहीना चेतनावस्था में परमात्मा की प्राप्ति होती है; किन्तु वहाँ द्वैत भाव रहता है, वहाँ सारशब्द की ग्रहण कर सुरत परम प्रभुु परमात्मा से जा-मिलकर एक ही जाती है; आवागमन का चक्र छूट जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए गुरु-कृपा अत्यंत अपेक्षित है-
निज तन में खोज सज्जन! बाहर न खोजना।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना।।1।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बनाके।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना।।2।।
तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढके खोजना।।3।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक की।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना।।4।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’ , तहँ पहुँचि खोजना।।5।।
जिन्होंने प्रभु की खोज की, उनको वे मिले। कहाँ मिले? सन्तप्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-’ अनुनपौ आपुन ही में पायो।’ कैसे?
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।
इसका भेद सत्गुरु ने बतलाया। अपने अन्दर प्रकाश हुआ। प्रकाश में शब्द मिला। शब्द के सहारे ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में परमात्मा के दर्शन हुए, मिलन हुआ। तो यह निश्चित हो गया कि परमात्मा हमारे अन्दर हैं। उनको खोजनेवाला जीवात्मा है। यह चेतन आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में सक्षम है। परमात्मा तो हमारे अन्दर है और जीवात्मा कहाँ है? क्या कोई कह सकता है कि यह शरीर में नहीं है, शरीर के बाहर है? सब कोई कहते हैं कि हम अपने अन्दर में है। आप कहाँ पर है? आँख में है? नाक में है? कान में हैं? मुँह में हैं? हाथ में हैं? पैर में है? पेट में हैं? पीठ में है? सिर में हैं? कहाँ हैं? कहते है, अपने अन्दर है; लेकिन कहाँ हैं, इसका ही पता नहीं है। है लेकिन अन्दर में ही। संत कबीर साहब ने प्रश्न किया था-
इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय नौ ठौर।
गुरु गम भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिरमौर।।

जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाशिेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्घ्नि संस्थितम्।।
(ब्रह्मोपनिषद)
जाग्रतावस्था में जीव आँख में, स्वप्नावस्था में कंठ में और सुषुप्ति अवस्था में हृदय में चला जाता है। जब साधना करके तुरीय अवस्था को प्राप्त करते हैं, तो उस समय मूर्धा में बासा होता है। ऐसा लगता है, जैसे ठीक इसी का भाषानुवाद संत चरणदासजी महाराज ने किया हो। वे कहते हैं-
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कण्ठ स्थान।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान।।
संत दरिया साहब (बिहारी) ने लिखा है-
जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले,
सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीर दिव दृष्टि ताना।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै,
चैन चंगा हुआ जीति दाना।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै,
जागता जिन्द है देखु ध्याना।।
वह जागता जिन्द तुम्हारे अन्दर है, ध्यान करके देखो। जो कभी मरता नहीं, सदा जीवित रहता है, इसीलिए उसका नाम है जीव। हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब ने कहा है-
सत सुरति समझि सिहारा साधौ। निरखि नित नैनन रहौ।।
इन्होंने भी बतलाया है कि जीव आँख में रहता है। इस भाँति संतों की वाणियों से तथा अन्य सद्ग्रन्थों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि जीव का वासा जाग्रत काल में आँख में होता है।
यद्यपि परमात्मा सर्वत्र हैं; लेकिन सर्वत्र हम उनके दर्शन नहीं कर सकते। जिस तरह आँख पर पट्टी बँधी रहने के कारण निकट की चीज को भी हम नहीं देख सकते अथवा हमारी आँख पर रंगीन चश्मा लगा हो, तो नजदीक की चीज को देखते हुए भी उसका सही रूप मालूम नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ-अगर चश्में में हरा शीशा लगा हुआ है, तो जिस चीज को देखेंगे, वह हरी मालूम पड़ेगी। लाल चश्मा लगा हुआ है, तो वह चीज लाल मालूम पड़ेगी। पीला शीशा लगा हुआ है, तो वह चीज पीली मालूम पड़ेगी-सही मालूम नहीं पड़ेगी। उसी तरह से जीवात्मा के ऊपर शरीर रूपी पट्टी और इन्द्रिय-रूपी चश्मा लगा हुआ है। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी के कारण कुछ सुझता नहीं है और इन्द्रिय-रूपी चश्मे से अगर कुछ सूझता भी है, तो वह सही नहीं सूझता। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी और इन्द्रिय-रूपी चश्में को हम अपने ऊपर से उतारें। जब ये दोनों हट जायँगे, जहाँ पर हट जायँगें, वहीं पर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा।
अतएव हम वहाँ चलें, जहाँ जाने पर शरीर और इन्द्रिय से छुटता हो। जिज्ञासा होती है-हम चलें तो कहाँ से, कैसे चलें? उत्तर में निवेदन है-चलता कोई कहाँ से है? जो जहाँ बैठा रहता है, चलता वहीं से है। हमलोग दूर-दूर से आकर इस हॉल में बैठे हुए हैं। अपने घर से आकर इस हॉल में बैठ गए हैं। अब अगर इस हॉल से हम अपने घर जाना चाहेंगे, तो कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से चलेंगे। एक की जगह से दूसरे कोई नहीं चल सकते। जो जहाँ बैठे हैं, वहीं से चलेंगे। उसी तरह शरीर में हम जहाँ बैठे हुए हैं अर्थात् आँख में बैठे हुए हैं, तो यहीं से यानी आँख से चलेंगे; क्योंकि जो कुछ काम करना होगा, जाग्रत अवस्था से ही हम शुरु कर सकते हैं, स्वप्न में तो कुछ कर ही नहीं सकते, सुषुप्ति में तो और कहाँ से क्या कुछ कर सकते हैं। जाग्रत से ही हमारा कार्य आरम्भ होगा। साधना का आरम्भ जाग्रत से ही होगा और जाग्रत अवस्था में हम आँख में है। इसलिए आँख से चलें। चलें कैसे? इसकी युक्ति सन्त सद्गुरु से जान लें।
किसी चीज का सिमटाव होता है, तो उसकी ऊध्वगति होती है। जो जितना सूक्ष्म होता है, उसका उतना ही अधिक सिमटाव होता है और उसकी ऊध्वगति भी उतनी ही अधिक होती है। जैसे एक किलो बर्फ लीजिए। एक किलो बर्फ की ऊँचाई उस ढ़ेले की ऊँचाई के बराबर होगी; एक किलो आप पानी लीजिए और उसकों पतले नल में प्रवेश कराइए, तो जितनी दूर तक वह बर्फ गयी थी, उससे बहुत अधिक दूर तक वह पानी चला जाएगा; क्योंकि बर्फ से पानी तरल है-सूक्ष्म है। उसी तरह एक किलो पानी को आप उबालकर वाष्प बना दीजिए, तो जल से महीन होने के कारण उसका सिमटाव जल से अधिक हो जाएगा और जल की अपेक्षा वाष्प की अधिक ऊर्ध्वगति हो जाएगी। उसी वाष्प को यदि हम विद्युत में परिवर्तित कर दे, तो वाष्प से विद्युत सूक्ष्म होने के कारण उसकी ऊर्ध्वगति और अधिक हो जाएगी। विद्युतगति के लिए आज के वैज्ञानिकों ने बताया है-एक लाख छियासी हजार सात सौ सड़सठ मील एक सेकेण्ड में होती है। विचारणीय विषय है कि बिजली की गति एक सेकेण्ड में इतनी होती है, तो बिजली का स्पर्श हमारे शरीर में होता है; लेकिन हमारा मन कितना सूक्ष्म है, जिसका स्पर्श नहीं होता है। उस मन का अगर सिमटाव करेंगे, तो उसकी गति एक सेकेण्ड में कितनी होगी! मन हमारा कहाँ फँसा हुआ है? इस जगत में। इस जगत को नाम रूपात्मक कहते हैं और वह परमात्मा-नाम-रूप-विहीन है। तेजोविन्दूपनिषद्, जो कृष्ण यजुर्वेद का अंश है, में लिखा है-
नामरूपाविहीनात्मा परसंवित्सुखात्ममः।
तुरीयातीत रूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः।।49।।
नाम और रूप में हमारा मन फैला हुआ है, तो नाम और रूप के द्वारा ही हम अपने मन को समेटें। इसके लिए हम कोई एक नाम लें, जो ईश्वर-वाचक हो और जिसमें हमारी श्रद्धा हो। संतों के यहाँ संकीर्णता नहीं है। जिसमें आपकी श्रद्धा हो, जिसमें आपकी रुचि है, उस नाम को लीजिए। ईश्वर-वाचक किसी नाम में कोई फर्क नहीं पड़ता। संत दादू दयालजी महाराज ने कहा-
दादू सिरजहार के, केते नाँव अनन्त।
चित आवै सो लीजिये, यौं साधू सुमिरै सन्त।।
जिन इष्ट का नाम हम लें, उनके रूप का हम ध्यान भी करें; क्योंकि हम जो नाम लेते हैं, तदनुरूप रूप हमारे सामने आता है। नाम कहते हैं शब्द को। शब्द से हम पुकारते हैं। जिनको हम पुकारते हैं, उनका रूप हमारे सामने आवे, यह कोई अस्वभाविक बात नहीं। जैसे हमारे चार लड़के हैं, उन चारों लड़को में जिस लड़के का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उसी लड़के का रूप हमारे सामने आएगा, अन्य तीन लड़को के नहीं। हमारी दो लड़कियाँ हैं। उन दो लड़कियों में जिस लड़की का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उसी लड़की का रूप हमारे सामने आएगा। आम का नाम लेंगे, तो आम का रूप हमारे सामने आएगा। केले का नाम लेंगे, तो केले का रूप हमारे समाने आएगा। निष्कर्ष यह निकला कि जिस शब्द का उच्चारण हम करेंगे, उससे सम्बन्धित रूप हमारे सामने आएगा। उसी तरह जिस इष्ट का नाम लेकर हम जप करेंगे, उस इष्ट का रूप भी हमारे सामने आना चाहिए। फिर उसका हम ध्यान करें। जबहम सन्तवाणी का अध्ययन करते हैं, तो सन्तवाणी में हम पाते हैं कि गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु से बढ़कर अन्य किसी का स्थान नहीं है। जैसा कि सन्त कबीर स शहब, गुरु नानक देवजी और अन्य सन्त कहते हैं-गुरु -नाम के जप से और गुरु-रूप के ध्यान से उपासना का आरम्भ करो। सन्त कबीर साहब के वचन में है-
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गूरु पाँव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव।।
गुरु नानक देवजी महाराज क्या कहते हैं-
अन्तरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ।
नेत्री सतिगुर पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ।।
गुर की मूरति मन महि धिआनु।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु।।
गुर के चरन रिदे लै धारउ।
गुरु पार ब्रह्म सदा नमसकाराउ।।1।।
वेद में हम पाते हैं-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्बिष्णु गुरुर्देवः महेश्वरः।
स्थूल नाम के जप और स्थूल रूप के ध्यान से हम स्थूल नाम-रूपात्माक जगत में हमारा कुछ सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव के लिए गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
भगता की चाल निराली।
चाल निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा।।
लबु लोभु अहंकार तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा।।
इस सूक्ष्म रास्ते पर चलना है। मानस जप और मानस ध्यान; यह स्थूल सगुण साकार उपासना है। इसके पश्चात् सूक्ष्म सगुण साकार उपासना का आरम्भ होता है।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा।
इस रास्ते से चलना है। इसी विषय को सन्त कबीर साहब ने इस भाँति कहा-
भक्ति का मारग झीना रे।
भक्ति का मारग महीन है। इसी को बाइबिल में लिखा है-
‘ सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग जो मृत्यु को पहुँचाता है और संकीर्ण हे वह मार्ग, जो जीवन को पहुँचाता है। इस सन्दर्भ में एक शायर ने कहा है-
जिगर वो हुस्न एक सूई का मंजर याद है अब तक।
निगाहों का सिमटना वो हुजूमे नूर हो जाना।।
निगाहों का सिमटना कैसे होगा, उसकी कला जानिए। इसी कला को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है।
समं काया शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।13।।
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठो। इससे मेरुदण्ड सीधा रहेगा। मेरुदण्ड सीधा रहने से श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ने से मन की चंचलता दूर होती है। जब मन की चंचलता दूर होती है, तो भगवद्-भजन में मन लगता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के निर्देशानुकूल बैठने की आदत डालो। शरीर को अचल और स्थिर करके बैठने के बाद क्या करो? ‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ अर्थात् नासिका-अग्र में देखो। साथ ही शर्त है ‘दिशश्चानवलोकयन्’ यानी किसी दिशा को नहीं देखते हुए देखो। जिस समय हमारी आँखें खुली होती हैं, हम दसों दिशाओं को देखते हैं। लेकिन जिस समय आँखें बन्द करते हैं, तो उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम औरा चारो कोणों का ज्ञान तो नहीं रहता; किन्तु ऊपर और नीचे का ज्ञान तो रहता ही है। कितने लोग ‘नासिकाग्र’ का अर्थ बतलाते हैं-नाक की नोक का निचला भाग; कोई कहते हैं ‘भ्रवोर्मध्य’ यानी ऊपर का भाग। इस प्रकार हम नीचे भाग का ध्यान करें, चाहे ऊपर भाग का, तो दस दिशओं में से एक दिशा हो ही जाएगी। भगवान कहते हैं, किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो। तब क्या करना होगा? इसी का यत्न सद्गुरु से सीखना पड़ता है। एक लघु कथा है-
एक बूढ़े सेठजी थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा, ‘बेटा! घर में निठल्ले बैठकर क्या करोगे, जाओ कुछ काम-धन्धा करो। कुछ पैसे कमाओ।’ सेठ-पुत्र चला गया विदेश कमाने के लिए। बूढे बीमार हुए। खबर दी कि मेरा अन्तिम समय है, आकर भेट करो। दूर होने के कारण आने में देर हो गई। सेठजी का शरीर छूट गया। घर आने पर उसने तिजोरी में पूर्व संचित सम्पत्ति की खोज की। वहाँ धन नही था। उसको चिन्ता हुई। किसी से पूछने पर कुछ भी पता नहीं चला। उसके मन में आया, अगर पिताजी किसी को दिए होंगे, तो रोकड़ बही में जमा-खर्च होता ही होगा, उसमें लिखे होंगे। वह लड़का रोकड़-खाते के पन्ने उलटाने लगा। उसमें उसने लिखा पाया-आज महीना अमुख, तिथि अमुक, बारह बजे दिन में मैंने अपनी सारी सम्पत्ति दरवाजे पर स्थित शिवालय के त्रिशुल पर रख दी है। वह जाता है बाहर दरबाजे पर; देखता है, शिवालय तो है, त्रिशूल भी है; लेकिन इतनी सम्पत्ति त्रिशूल पर रहे, तो कैसे, त्रिशूल पर तो कुछ भी नहीं है। तो क्या मेरे पिताजी झूठी बात लिखकर चले गए? नहीं इसमें कोई राज है, जो मैं नहीं समझ रहा हूँ। वह चला गया मुनीमजी के यहाँ। वहाँ उनसे पूछा-’ आपको पता होगा, पिताजी ने सम्पत्ति क्या की?
मुनीमजी ने उत्तर दिया-हाँ, मुझे मालूम है। लेकिन वह महीना आने दो, मुझे खबर करना। मैं जाऊँगा और बारह बजे दिन जैसे होगा, वैसे मैं तुमको पता बतला दूँगा। वह महीना आया, वह तिथि आयी, सेठ-पुत्र गया मुनीमजी के यहाँ। मुनीमजी को बुलाकर लाया और कहा, अब बतलाइए। मुनीमजी ने कहा बैठो। जब बारह बजने में एक-दो मिन ट की देर रही, तो मुनीमजी ने कहा-चलो अब बतलाता हूँ। गए, ठीक बारह बजे दिन में शिवालय के त्रिशूल की छाया जहाँ पड़ती थी, मुनीमजी ने कहा-खोदो यहाँ पर। जमीन खोदी गयी, सारी सम्पत्ति मिल गई। यह एक रहस्य की बात है। इसी तरह शास्त्रें में नासाग्र, भ्रुवोर्मध्य आदि बातें लिखी हुइ हैं; जबतक सन्त सद्गुरु रूप मुनीम से भेंट नहीं होगी, राज नहीं खुलेगा। खोजते रह जाइए त्रिशूल पर, कभी सम्पत्ति नहीं मिलेगी। वह त्रिशूल है क्या, वह शिवालय है क्या? योगशिखोपनिषद् में आया है-
विन्दुनाद महालिगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।
हमलोगों को जो यह शरीर है, यह शिवालय है। शिवालय के ऊपर त्रिशूल क्या है? आप देखे होंगे, कितने लोग तिलक लगाते हैं-तीन धारियाँ लगाते हैं। दोनों बगलवाले तिलक उजले होते हैं और बीचवाला लाल होता है। ये अगल-बगलवाले क्या हैं? इड़ा-पिंगला हैं और बीचवाला जो है गोदुम आकार का, वह सुषुम्ना है। यही त्रिशूल है। यह एक संकेत है। सुषुम्ना में जाकर खोजो, मिलेगा। सुषुम्ना में कैसे जाओ, इसका यत्न गुरु से जानो। योगिवर पंचानन भट्टाचार्यजी ने लिखा है-
बायें इड़ा नाड़ी दक्खिने पिंगला, रजस्तमी गुणे करिते छै खेला।।
मध्य सत्त्व गुणे सुषुम्ना विमला, घर घर तारे सादरे।।
आर केन मन भ्रमिछ बाहिरे, चल न आपन अन्तरे।।
मीराबाई के लिए लोग कहते हैं-वह तो मात्र गिरिधर गोपाल को जानती थी और कुछ नहीं जानती थी। लेकिन परम भक्तिन मीराबाई क्या कहती हैं-
सेज सुखमना मीरा सोवे, शुभ है आज घड़ी।
सुषुम्ना की शय्या पर सोती थी मीराबाई। संत कबीर साहब कहते हैं-
गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार।
सूली ऊपर सांथरा, जहाँ बुलावै यार।।
और मीराबाई कहती हैं-
सूली ऊपर सेज पिया की,
किस विधि मिलना होय।
वह शूली क्या है? वह शूली है चेतन-धार। जिसको सूली की सजा होती थी, छेद देती थी सूली उसके शरीर को नीचे से ऊपर तक-गुदा मार्ग से मस्तक तक। उसी तरह एक सार धार चेतन-धार है, जो समूचे शरीर को बेधे हुई है अर्थात् ब्रह्माण्ड से पिण्ड पर्यन्त परिव्याप्त है। उस सार शब्द को जो कोई पार करते हैं, उनको ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ मिल जाती है; पिया से मिलन हो जाता है; परमात्मा से भेट हो जाती है-साक्षात्कार हो जाता है। कहने का तत्पर्य यह कि दृष्टि-साधन की क्रिया करने से पूर्ण सिमटाव होता है, फलतः सुरत अन्धकार से प्रकाश में चली जाती हैं वहाँ उसको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वह आगे बढ़ती है। वहाँ पहले अनेक शब्द मिलते हैं। अनेक शब्द होने के कारण उनकी संज्ञा हो गयी ‘अनहद शब्द’ की । संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है।।
और,
झिमिझिमि बरसै अंम्रित धारा। मनु पीवै सुनि शबदु विचारा।।
अनद विनोद करै दिन राती। सदा सदा हरि केला जीउ।।
गुरु नानक देवजी महाराज ने कहा-
जीव और पीव के मिलन में वहाँ सतत ही अनन्द होता रहता है। कबीर साहब ने कहा है-
भजन में होत आनन्द आनन्द।
बरसत विशद अमी के बादर, भींजत है कोइ सन्त।।
योगिवर पंचानन भट्टाचार्यजी अपनी अनुभूति की बात कितने स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-
आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण
दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धन।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय
जेमन जीवने जीवन थाके ना।।
इस तरह जो कोई आन्तरिक साधना में अग्रसर होते हैं, तो क्रमशः अन्धकार से प्रकाश में चले जाते हैं। वहाँ उनको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वे आगे की ओर बढ़ते हैं यानी स्थूल के केन्द्र से सूक्ष्म के केन्द्र पर, सूक्ष्म के केन्द्र से कारण के केन्द्र पर, कारण के केन्द्र से महाकारण के केन्द्र पर और महाकारण के केन्द्र से भी आगे बढ़कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनको परमात्म-दर्शन होते हैं। उससे भी आगे जाकर परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं और उसमें विराजनेवाली शान्ति को प्राप्त करते हैं।
यह सन्तों का ज्ञान है। यह सन्तमत का ज्ञान है। इसके लिए आवश्यकता है पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचने की। अगर इन पंच पापों से हम बचते हैं, तो एक नए समाज का निर्माण हो जाएगा, जहाँ कहीं राग नहीं, द्वेष नहीं, कलह और क्लेश नहीं, जहाँ आपस में प्रेम-पूरित सद्भावना से रहेंगे। वहाँ लडाई-झगड़े नहीं होंगे, शान्ति से रहेंगे। तो हम पंच पापों से बचें। नित्य सत्संग करें, अन्तस्साधना करें और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस तरह हमारा मानव जीवन सफल होगा, सार्थक होगा।

स्थान: कुंजपुरा रोड़, हरियाणा
दिनांक-19-10-1993 ई0


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, माताओं एवं बहनो!
‘ मानस’ यानी रामचरितमानस। भगवान शंकर ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पवित्र चरित्र को अपने मानस पटल पर चित्रित कर रखा था, जिसको समया पाकर उन्होंने श्रीपार्वतीजी से कहा। इसलिए ‘रामचरितमानस यहि नामा’ कहकर अभिहित किया गया। मानस में भगवान श्रीराम के स्थूल सगुण साकार और निर्गुण निराकार-दोनों स्वरूपों के विलक्षण वर्णन मिलते है। रामचरितमानस में जहाँ हम सगुण लीला का बड़प्प पाते हैं, वहाँ गोस्वामी तुलसी दासजी निर्गुण निराकार की भी महिमा गाते नहीं अघाते हैं। जहाँ सगुण लीला को जल की स्वच्छता बताया गया है, वहाँ निर्गुण निराकार को जल की अगाघता कहा गया है। स्पष्ट है कि जल स्वच्छ हो; किन्तु स्वल्प हो, तो उससे अधिक मैल दूर नहीं हो सकती। समस्त मल-प्रक्षालन के लिए तो प्रचुर मात्र में निर्मल जल की आवश्यकता है, जिसका पूर्ति निर्गुण स्वरूप से ही संभव हैं।
लीला सगुन जो कहब बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।
पुनः प्रश्न है-जो निर्गुण पुनि सगुन सो कैसे।
तो उत्तर देते हैं-जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।।
निर्गुण मूलतत्त्व है, उससे सगुण की उत्पत्ति होती है। जैसे जल मूलतत्त्व है और उससे हिम और उपल की उत्पत्ति होती है। विचारणीय विषय है-जल से खेती लहलहा उठती है; किन्तु हिम और उपल में फसल नष्ट होती है। इसी हेतु गोस्वामी तुलसीजी ने रूप को सुलभ और सगुण रूप को भ्रमोत्पादक बतलाया है, यथा-
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय।।
इसका अर्थ यह नहीं कि सगुण साकार की भक्ति को छोड़कर केवल निर्गुण निराकार की उपासना की जाय। जैसे सरलाक्षर सीखे बिना कोई संयुक्ताक्षर नहीं लिख सकता, उसी प्रकार स्थूल सगुण साकार की आरम्भिक साधना किये बिना कोई निर्गुण निराकार की उपासना नहीं कर सकता। जैसे पैर के बिना कोई दौड़ नहीं सकता और सिर के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार स्थूल सगुण साकार की उपासना किए बिना कोई भक्तिपथ पर अग्रसर नहीं हो सकता और निर्गुण निराकार की उपासना किए बिना भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँच नहीं हो सकती और न अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है। स्थूल सगुण साकार-भक्ति प्रगट है और सूक्ष्म सगुण साकार से लेकर निर्गुण निराकार तक की भक्ति गुप्त है। इसी दृष्टि को अपनाकर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि।।
(उत्तरकाण्ड)
जिसका सामान्य अर्थ होता है-भगवान श्रीराम (गुरु, गुरुजन, पुरजन एवं प्रजाजन से) पाणिबद्ध प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि बिना शंकर-भजन किए कोई मेरी भक्ति नहीं पा सकता। किन्तु जब मानस की निम्नलिखित चौपाइयाँ हमारे सामने आती हैं, तो समस्या गंभीर हो जाती है, सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि क्या भगवान शंकर को चुनौती देनेवाले भी भगवान श्रीराम के भक्त हो सकते हैं? औरों की बात जाने दीजिए, भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त, जैसे लक्ष्मणजी, हनुमानजी और अंगदजी चुनौती देते है; यथा वनवास-काल में भरत आगमन सुनकर श्रीलक्ष्मणजी का आक्रोश में आकर कहना-
जो सहाइ कर संकर आईं तौ मारौं रन राम दुहाई।।
(अयोध्याकाण्ड)
रावण के प्रति श्रीहनुमानजी का वचन है-
सुनु वसकंड कहाँ पन रोपी। राम बिमुख त्रता नहिं कोपी।।
संकर सहस विष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
(सुन्दरकाण्ड)
मेघनाथ के प्रति श्रीलक्ष्मणजी का कथन है-
जौं सत संकर करहिं सहाई। तदपि हतौं रघुवीर दुहाई।।
(लंकाकाण्ड)
और रावण के प्रति अंगद का वचन-
सुनु रावन परिहरिा चतुराई। भजसि न कृपा सिंधु रघुराई।।
जो खल भयसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्रा सक राखि न तोही।।
और तो और, जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्वयं एक स्थल पर कहते है कि शंकर-द्रोही मेरा दास नहीं हो सकता। वे ही भगवान दूसरी जगह दूसरी तरह की बात कहते हैं, तो स्थिति गंभीरतम हो जाती है; यथा-
सुनू सुग्रीव मैं मारिहौं, बालिहि एकै बान।
ब्रह्म रुद्र सरणागतहु, गये न उबरहिं प्रान।।
जिज्ञासा होती है-आखिर इसका समाधान कहाँ और कैसे हो? उत्तर में निवेदन है-भिन्नता स्थूल रूप में होती है, सूक्ष्म में नहीं। रूप का आरम्भ बिन्दु से होता। प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्ध आत्मा-स्वरूप हैं। भिन्न-भिन्न इष्टों के भिन्न-भिन्न नाम-रूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही हैं
हम शिवालय जाते हैं। वहाँ देखते हैं कि नीचे जलढरी है और उसके ऊपर शिवलिंग स्थापित है। योगशिखोपनिषद्, अध्याय 1 में आया है-
विन्दुनाद महालिगं शिवाशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सवंदेहिनाम्।।
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मन्दिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों करे इसमें सिद्धि मिलते है।
विन्दुरूप में शक्ति और नादरूप में शिव विराजते हैं। उसी तरह विन्दुरूप में लक्ष्मी तथा नादरूप में विष्णु विराजते हैं। इस प्रकार जो विन्दु और नाद की उपासना करते हैं तथा विन्दु और नाद के उपासक ही लक्ष्मी और विष्णु की भी उपासना करते हैं। यही शिवभक्त का राम-भक्त होना है।
शब्दानाम् अनेकार्थः-एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते है। ‘कर’ का अर्थ हाथ के अलावा किरण भी होता है। इसलिए ‘औरउ एक गुपुत मत’ इस दोहे का अर्थ इस तरह है-मैं सबको और भी एक गुप्त विचार कहता हूँ (वह यह कि) किरणों (चैतन्यवृत्तियों-सुरत की धारों) को जोड़कर (एकत्र कर) कल्याणकारी भजन किए बिना कोई मेरी भक्ति नहीं पा सकता।
किरण प्रकाशस्वरूप होती है। शरीर में चैतन्यवृत्ति वा सुरतधार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी है। सुरत की धार युगल नेत्रें से निःसृत होती हैं। इन दोनों धाराओं को गुरु-निर्देशित स्थान पर एकत्र किया जाता है।
एक द्रिसटि करि समसरि जार्ण जोगी कहीअै सोई।
(गुरु नानक साहब)
‘ यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।’ (प्रभु ईसा मसीह)
इस यौगिक क्रिया के द्वारा एक विन्दुता को प्राप्ति होती है; चित्तवृत्ति का निरोध होता है, पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। फलस्वरूप अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाता है। प्रकाश में प्रतिष्ठित होने से विकारों-दुर्गुणों का विनाश और सद्गुणों का विकास होता है। पढ़िए रामचरितमानस में-
जबतेँ राम प्रताप खगेसा।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
तथा-
राम भगति चिन्तामनि सुन्दर।
बसइ गरुड़ जाके उर अन्दर।।
परम प्रकास रुप दिन राती।
नहिँ कछु चहिय दिया घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिँ आवा।
लोभ बात नहिँ ताहि बुझावा।।
प्रबल अविद्या तम मिटि जाई।
हारहिँ सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिँ जाहीँ।
बसइ भगति जाके उर माहीँ।।
गरल सुधा सम अरि हित होई।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
व्यापहिँ मानस रोग न भारी।
जिन्हके बस सब जीव दुखारी।।
अर्थ-रामभक्ति-रूपी सुन्दर चिन्तामणि है, हे गरुड़जी! वह जिसके हृदय में बसती है, वह दिन-रात परम प्रकाश-रूप है। वहाँ दीप, घी और बत्ती कुछ नहीं चाहिए। अज्ञानता-रूपी दरिद्रता उसके पास नहीं आती है और लोभ-रूपी हवा उस मणि के प्रकाश को नहीं बुझाती है। अविद्या का कठिन अंधकार (उस मणि के प्रकाश से) मिट जाता है और (मदादिक) सब फतिंगे हार जाते हैं (उसे बुझा नहीं सकते हैं)।
काम आदि दुष्ट उसके पास नहीं जातें, जिसके हृदय में भक्ति बसती है। जिसके प्रभाव से विष अमृत और शत्रु मित्रतुल्य हो जाते हैं, उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता है। भक्तिवन्त को मन के भारी रोग नहीं होते, जिनके वश में सभी जीव दुःखी हैं। राम-भक्ति-रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे सपने में भी लवलेश मात्र दुःख नहीं होता।
जो कोई इस तरह की रामभक्ति करते हैं, जिसमे अन्तःप्रकाश मिलता है, वास्तव में वे ही रामराज्य में रहत हैं। उनके त्रयताप नष्ट होते हैं और वे परम कल्याण के भागी होते हैं।

स्थान: भागलपुर दिनांक-20-12-1993 ई0


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
परम प्रभु परमात्मा ने अद्भुत सृष्टि की है और उनकी सृष्टि का विधान भी अद्भुत है। संसार में लोग आते है, कुछ दिन रहते हैं, फिर चले जाते हैं। यह संसार ही कुछ ऐसा है कि पूर्व में जो काई भी आए, सब-केै-सब चले गए। वर्तमान में जो हैं, वे भी जाएँगे। फिर भविष्य में भी जो आएँगे, वे भी जाएँगे। संत कबीर साहब ने कहा है-
आये हैं सो जाहिगे, राजा रंक फकीर।
एक सिहासन चढ़ि चले, एक बँधे जाय जंजीर।।
आनेवाले निश्चित रूपेण जाएँगे। लेकिन जाने में भेद है और वह यह है कि एक सिहासन पर चढ़कर जाएँगे और दूसरे जंजीर से बँधे जाएँगे। सांसारिक माया में जो बँधे रहेंगे, वे यम के बंधन से बँधकर यमालय जाएँगे। दूसरे वे होते हैं, जो जागमिक बंधनों से मुक्त होते हैं, ईश्वर-भक्ति से संयुक्त होते है; वे भगवद्भजन कर ईश्वर-धाम को पहुँचते हैं। जो कोई जागति प्रपंच में ही लगे रहते हैं, वे यमजाल से बँधते हैं और जो ईश्वर का भजन करते हैं, वे यमजाल में छूटते हैं।
इसलिए संतों ने कहा-इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। कितने दिनों के लिए यह शरीर है, कितने दिनों तक यह रहेगा-कोई ठिकाना नहीं है।
गुरु नानकदेव ने कहा है-
नहँ बालक नहँ यौवने, नहँ बिरधी कछु बंध।
वह अवसर नहि जानिय, जब आय पड़ै यम फद।।
कोई प्रतिबंध नहीं है-कौन कब मरेगा। बूढ़े होंगे, तभी मरेंगे-ऐसी बात नहीं। कितने तो गर्भ से मरकर ही आते हैं। इस तरह इस संसार में मरना-ही-मरना है। इस लोक का नाम ही मर्त्यलोक है। सबके लिए परमात्मा ने जीवन-काल निश्चित कर दिया है। लेकिन सर्वसाधारण के लिए यह अज्ञात है। गुरु नानकदेवजी महाराज थे। उनका सत्संग होता था। बहुत सबेरे-सबेरे लोग सत्संग में इकठ्टे हो जाते थे। उस सत्संग में बहुत लोग जाते थे। उसमें पाँच वर्ष का एक छोटा बच्चा भी जाता था। गुरु नानक साहब ने देखा कि यह बच्चा अपने अभिभावक के साथ बराबर में सत्संग में आता है। एक दिन गुरु नानकदेवजी महाराज ने उस बच्चे से पूछा कि बच्चे! जो वयस्क लोग हैं, वे जानते है कि सत्संग से क्या लाभ है। तुम जो इतने सबेरे-सबेरे आ जाते हो, क्या समझकर? उस छोटे बच्चे ने कहा-गुरु महाराज! मैं तो कुछ समझता नहीं हूँ; लेकिन एक दिन की घटना है-मेरी माँ रोटी बना रही थी। चूल्हे के निकट मैं भी बैठा था, मैंने देखा कि जो मोटी-मोटी लकड़ियाँ हैं, वे तो देर से जलती हैं और जो पतली-पतली टहनियाँ हैं, वे जल्दी-जल्दी जल जाती हैं। मैंने सोचा, जो बड़ी उम्र के लोग हैं, वे मोटी-मोटी लकड़ियों के समान हैं और जो पतली-पतली टहनियाँ हैं, वे कम उम्र के लोगों के समान है। इसलिए मैंने सोचा कि जो बड़ी उम्र के लोगा हैं, वे देर से मरेंगे और मैं जो पतली टहनी के समान हूँ जल्द ही मर जाऊँगा। इसलिए सत्संग में आने लगा हूँ। आपके दर्शन करता हूँ। गुरु नानकदेवजी हँसकर बोले-यह बच्चा नहीं, बूढ़ा है; क्योंकि इसका ज्ञान परिपक्व है। गुरु नानकदेवजी के आर्शीवाद से उसने लम्बी आयु पाई।
हाँ, तो मैं कह रहा था। इस जीवन का ठिकाना नहीं है-भरोसा नहीं हैं कि कब चला जायगा। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने कहा-
पद्य पत्र परी पड़े हुए अति चंचल नीर समान।
अतिशय चपल और क्षणभंगुर इस जीवन की जान।।
यहाँ एक बस क्षणभर की सत्संगति ही का भाव।
भवसागर से तरने में बन जाता दृढ़तर नाव।।
कमल के पत्ते पर पानी रखिए, ढरक जाएगा, वह रहेगा नहीं। उसी तरह मनुष्य का शरीर है, यह भी क्षणभंगुर है, नाशवान है। कब समाप्त हो जाएगा, पता नहीं। इस क्षण भंगुर शरीर से सत्संग करना चाहिए। थोड़ा-सा भी सत्संग करेंगे, तो उसका बड़ा महत्त्व है। एक बार का प्रसंग है। वशिष्ठजी घूमते-घामते विश्वामित्र मुनि के आश्रम में गए। विश्वामित्र मुनिजी ने बड़ी तपस्या की थी। बहुत आदर सत्कार किया। जब वशिष्ठजी चलने लगे, तो उन्होंने अपनी एक हजार तपस्या का फल इनको विदाई में दिया। प्रसन्न हो चले गए वशिष्ठजी। कुछ दिन के बाद विश्वामित्र मुनिजी घूमते-घामते पहुँचे वशिष्ठजी के यहाँ। वशिष्ठजी राजयोगी थे। इन्होंने भी आदर सत्कार किया और उनके चलते समय इन्होंने जो सत्संग किया था, ध्यान किया था, दो घड़ी के सत्संग का फल दान में दिया। विश्वामित्र के मन में हुआ कि मेरे दान के सामने इनका दान बहुत कम हुआ। झुँझलाकर बोले-कहाँ तो मैंने इतना अधिक दान दिया और आपने इतना कम दिया। दोनों में बातें बढ़ गयीं। अब इनका इन्साफ कौन करे कि किनका दान कम हुआ और किनका अधिक! तो गए विष्णु भगवान के पास। विष्णु भगवान ने कहा-मुझे फुर्सत नहीं है, चले जाइए ब्रह्माजी के पास। दोनों ब्रह्माजी के पास गए और अपनी-अपनी बातें बतायीं। ब्रह्माजी ने कहा-मुझे अवकाश नहीं, चले जाइए शेषनाग के पास। शेषनागजी से दोनों ने अपनी-अपनी बातें सुनायीं। शेषनागजी ने कहा-किसका दान अधिक, किसका दान कम; किसका फल अधिक, किसका फल कम-यह कैसे बताऊँ? मैं तो पृथ्वी का भार लेकर हूँ। आपलोगों में से कोई इसकी सँभल कीजिए, तो मैं इन्साफ कर दूँगा। विश्वामित्रजी ने अपना तपबल लगाया; लेकिन उस भार को वे न ले सके। और वशिष्ठजी ने भार ले लिया। विश्वामित्रजी ने शेषनागजी से कहा-अब तो आप कहिए। न्याय तो हो गया कि किसने अधिक दान दिया। जिसने भार उठाया, उसने अधिक दान दिया।
सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग।
फिर व्यामोह-रहित हो जाता हो सर्वत्र असंग।।
मोह-विगत होते ही होता मन निश्चलतायुक्त।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन्मुक्त।।
सत्संग करते हैं, सत्य का रंग लगता है, तो असत् का रंग छूटता है। जहाँ सत्य होता है, विजय वहीं होती है। जो सत्य है, उसी की विजय होती है। असत् की विजय नहीं होती है। इस संसार में लोक-विजय, इन्द्रिय-विजय, मनोजय, संसार-जय वही कर सकता है, जो सत्य का आचरण करता है। सत्य का आचरण करके सत्यस्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। इसलिए संतों का यह ज्ञान है कि हमलोगों को सत्संग करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए। इससे इस लोक में जीवन-कल्याण-मय होगा और परलोक में भी जीवन कल्याणमय होगा।

स्थान: राँची दिनांक-23-9-1993


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मैत्रयण्युपनिषद् से आया है-ब्रह्म के दो रूप हैं-एक मूर्त और दूसरा अमूर्त। जो मूर्त है वह असत्य है और जो अमूर्त है वह सत्य है। मूर्त सगुण है और अमूर्त निर्गुण। योगतत्वोपनिषद् में लिखा है-
सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादि गुणप्रदम्।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।।
अर्थात् सगुण-ध्यान से अणिमा आदि गुणों की प्राप्ति होती है और निर्गुण-ध्यान से युक्त को समाधि होती है। स+गुण=सगुण। निः+गुण=निर्गुण। त्रयगुण-सहित=सगुण। त्रयगुण-रहित=निर्गुण। त्रयगुण=रज, सत् और तम। रजोगुण=उत्पाद का शक्ति; सत्त्वगुण=पालक शक्ति; तमोगुण=विनाशक शक्ति।
जो उत्पन्न हो, कुछ हाल रहे और पश्चात् नहीं रहे, विनष्ट हो जाय, वह सगुण कहलाता है। जो कभी न उत्पन्न हो और न विनष्ट ही हो, वह निर्गुण कहलाता है। सगुण असत् है, निर्गुण सत् है। सगुण जड़ है, निर्गुण चेतन है। सगुण अपरा प्रकृति है और निर्गुण परा प्रकृति। सगुण विनाशी और निर्गुण अविनाशी है। सगुण क्षर और निर्गुण अक्षर है। असत्-सत्, क्षर-क्षर, सगुण-निर्गुण तथा अपरा-परा के जो परे है, वह परमात्मा है।
इस सगुण-निर्गुण की चर्चा रामचरितमानस में गोसाईजी ने भी की है-
लीला सगुन जो कहब बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।
भगवान के सगुण रूप की महिमा जो है, वह स्वच्छ जल के समान है। स्वच्छ जल मैल को पवित्र करता है और निर्गुण महिमा के लिए कहा है कि वह जल की अगाधता है। जल स्वच्छ हो; लेकिन अल्प हो, तो उससे समस्त मैल साफ नहीं हो सकती है। बहुत मैल को साफ करने के लिए बहुत जल की आवश्यकता होती है। सगुण रूप के दर्शन किए वे भ्रम से मुक्त हो गए। उदाहरण के लिए जब रावण ने सीता का हरण किया और सीताजी चली गईं लंका, वे वहाँ की अशोक वाटिका में रहने लगीं। इधर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण सीता की खोज में चले। जिस जंगल से भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जर रहे थे, उसी जंगल की ओर से भगवान शंकर सतीजी के साथ जा रहे थे। भगवान शंकर ने देखा, अभी नजदीक जाकर साक्षात् करने का समय नहीं है, अतः उन्होंने दूर से ही प्रणाम कर लिया। सतीजी ने पूछा, ‘सामने किनको प्रणाम किया?’ भगवान राम की ओर संकेत करके भगवान शंकर ने कहा, ‘देखती नहीं हो भगवान जा रहे हैं।’ सतीजी ने कहा, ‘ये राजा दशरथ के पुत्र हैं। ये भगवान कैसे? (जौं नृप तनय तो ब्रह्म किमि)-ये राजपुत्र हैं। ये ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? अगर आप कहते हैं कि ये ब्रह्म हैं तो नारी-विरह में इतने विकल क्यों है? इनकी महिमा को सुनकर और इनके चरित्र को देखकर मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है।’ भगवान शंकर ने समझाने की चेष्टा की; लेकिन सीताजी के मन में नहीं माना। भगवान शंकर ने देखा, मेरी बात से इनको बोध नहीं हो रहा है, तो उन्होंने कहा-’ अगर मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं है, तो जाओ, स्वयं परीक्षा ले लो कि ये भगवान हैं या नहीं। मैं इसी वृक्ष के नीचे बैठता हूँ।’ भगवान शंकर बैठ गए और सतीजी चली परीक्षा लेने के लिए। सोचने लगीं-परीक्ष किस तरह लूँ? सोचते-सोचते उनके मन में विचार आया, ये (राम) सीताजी की खोज में जा रहे हैं, क्यों न मैं ही सीता का रूप धारणकर मार्ग में बैठ जाऊँ? अगर ‘सीता-सीता’ कहकर मेरे पास आएँगे, तो मैं समझ जाऊँगी कि ये कितने पानी के भगवान हैं। अगर मुझे पहचान गए, तो मैं समझूँगी कि ठीका ही ये भगवाना हैं। श्रीसीताजी मन-ही-मन कहती हैं-
सीता छवि धरके वन में चलके करुँ परीक्षा आज।
जौं पहचान गये तो मैं समझूँगी है भगवन्त।
नहीं तो समझूँ कोई नर है पर है अति बलवन्त।।
दूर से ही लक्ष्मणजी देखते हैं। देखते ही समझ जाते हैं कि सती ने सीता का रूप धारण किया है; लेकिन उन्होंने भगवान श्रीराम से कहा नहीं। जब भगवान श्रीराम सतीजी के निकट आते हैं, तो पूछते हैं, ‘आप अकेली घूम रही हैं, भगवान शंकर कहाँ हैं?’ अब तो बेचारी लाज के मारे आँखें बन्दकर लेती हैं। अन्दर में देखती हैं-राम, लक्ष्मण और सीता-तीनों हैं। फिर आँखें खोलती हैं, तो आगे राम, लक्ष्मण और सीता-तीनों को देखती हैं। फिर आँखें बन्दकर खोलती हैं, तो वहाँ कोई नहीं। अब वहाँ से चल देती हैं। आती है भगवान शंकर के पास। भगवान शंकर पूछते हैं, ‘परीक्षा ले ली?’ कहने में जरा संकोच लगता है। इतनी बड़ी साध्वी नारी होकर भी झूठ बोल देतीा हैं। अपने पति से कहती हैं कि मैंने परीक्षा नहीं ली। आपही की तरह प्रणाम कर लौट आयी। भगवान शंकर ध्यानावस्थित होकर देखते हैं कि सती ने सीता का रूप धारण करके परीक्षा ली है। भगवान राम की सीता तो मेरी आराध्या देवी हैं, मेरी माता हैं। सती ने जब माता का रूप धारण कर लिया, तो यह अब पत्नी कैसे रह सकती है? उन्होंने सतीजी का मन से परित्याग कर दिया, आज से इनके साथ पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं रहेगा। जिन सती में यह शक्ति थी कि वे रूप बदल सकती थीं, भगवान की परीक्षा लेने के लिए तैयार हो सकती थीं, उना सती के मन में भी सगुण लीला को देखकर सन्देह हो गया कि ये भगवान हैं कि नहीं।
और देखिए, जब भगवान राम और लक्ष्मणजी मेघनाद के नागपाश में बँध गए तो नारदजी भगवान के निकट पहुँचते हैं। देखते हैं कि भगवान नागपाश में बँधे हुए हैं, तो उन्होंने जाकर गरुड़जी से कहा कि भगवान नागपाश में बँधे हुए हैं, तुम जाकर छुड़ाओ उनको। गरुड़जी के पास आते ही नाग भाग जाता है। भगवान नागपाश से मुक्त हो जाते हैं। अब स्थिति को देखकर गरुड़जी के मन मे भ्रम हो जाता है। वे मन-ही-मन सोचते हैं कि अगर मैं नहीं गया होता तो दोनों-के-दोनों भाई बँधे ही रहते। ये भगवान कैसे हैं?
भव बन्धन ते छूटई, नर जपि जाकर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधउ, नाग पास सो राम।।
उनको भ्रम हो गया। ग्वाल-बाल के साथ कृष्ण को खेलते देखकर ब्रह्मा को भ्रम हो गया कि ये भगवान कैसे? उन्होंने गौएँ चुरा लीं, ग्वाल-बालों को चुरा लिया, बछड़ों को चुरा लिया। भगवान ने गौए, बछड़े, ग्वालबाल-सब बना लिए। तब ब्रह्मा की आँखे खुलीं। समझा-ये ठीक ही भगवान हैं। इन्द्र के मन में भ्रम हो गया, तो ब्रज पर वर्षा शुरू कर दी। भगवान श्रीकृष्ण ने सबकी रक्षा। इस तरह इन्द्र का भ्रम दूर हुआ। इस तरह सगुण रूप को देखकर बहुतों के मन में भ्रम हुआ। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा-
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहि कोय।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम हाय।।
निर्गुण में कोई भ्रम नहीं रह जाता। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता है कि सगुण-उपासना को छोड़ दो और केवल निर्गुण को ही पकड़ो। उपासना का आरम्भ स्थूल सगुण साकार से करो और आराधना का अन्त निर्गुण निराकार में जाकर करो। दोनों की आवश्यकता हैं किसी एक को छोड़ने की आवश्यकता नही है; लेकिन कोई जीवन भर स्थूल सगुण साकार को ही पकड़े रह जाय, निर्गुण की ओर नहीं जाय, तो जो पूर्ण कल्याण होना चाहिए, उससे वह वंचित रह जाएगा। इसलिए संतमत बतलाता है-स्थूल सगुण से आरम्भ करो और निर्गुण निराकार में जाकर समाप्त करो। पहले स्थूल सगुण साकार की उपासना, पश्चात् सूक्ष्म सगुण साकार-उपासना, तत्पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार-उपासना का अन्त में सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार की उपासना। उपासना की यह क्रमबद्धता है। इस तरह उपासना करके परम प्रभु परमात्मा को पा सकते हैं।

स्थान: ऋषिकेश (हरिद्वार) दिनांक-29-6-1993



समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
जापान की एक महिला यूकिको फ्रयूजिता ने स्वप्न में देखा कि एक झील है। उस झील में एक मंदिर है। वह उस मंदिर में देखना के लिए गयी कि उस मंदिर में किस देव का प्रतिष्ठान है। वह देव-दर्शन करने के ख्याल से उस मंदिर में गयी। वहाँ वह देखती है कि एक सन्त बैठे हुए हैं। गौर वर्ण के हैं, लम्बी-लम्बी दाढ़ी-मूछें, लम्बे केश और गैरिक वस्त्रधारी हैं। श्रद्धावनत होकर वह प्रणाम करती हैं। इतमें उसकी नींद टूट जाती है। उसके मन में हुआ कि साधु-सन्त, ऋषि-मुनि लोग तो भारत में हुआ करते हैं। हो-न -हो भारत के ही सन्त ने आकर मुझे दर्शन दिये हों, तो मेरी पुनीत कर्तव्य है कि मैं भी जाकर उनके दर्शन करुँ। वह अकेले ही आयी जापान से भारत। खोजने लगी, जिनको उसने स्वप्न में देखा था; किन्तु कहीं पता नहीं चला। भारत-प्रवास की अवधि पूरी हो गयी। लौटकर जापान चली गई। लेकिन उसके संस्कार ने उसको सोने नहीं दिया। एक वर्ष के बाद फिर वायुयान से भारत वह आती है और यत्र-तत्र घूमने लग जाती है-मठों में, आश्रमों में, मंदिरों आदि में। भागलपुर के निकट ही मुंगेर में योग-विद्यालय है। उसमें कुछ दिनों तक वह ठहर गयी और वहाँ उसने दीक्षा प्राप्त कर ली। लेकिन उसके मन में सन्तुष्टि नहीं हुई। सोचने लगी, जिना संत को मैंने स्वप्न में देखा था, वे सन्त तो ये नहीं हैं। खोजती-ढूँढती वह भागलपुर आयी महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट। कुप्पाघाट में गुरु महाराज की तस्वीर टँगी हुई थी। उसको देखकर तो वह बाग-बाग हो उठी। आश्रमवासियों से कहने लगी-’ इन्हीं संत के दर्शन मुझे स्वप्न में हुए थे। अभी वे संत कहाँ है? संयोग से गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। उसी वर्ष हरिद्वार में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। भागलपुर से स्पेशल ट्रेन गयी थी। उसको आश्रमवासियों ने बताया कि आपको उनके दर्शन वहाँ होंगे। निश्चित समय पर वह वहाँ पहुँची और गुरु महाराज के दर्शन करके निहाल हो गयी। जैसे किसी का खोया अनमोल पदार्थ एकाएक मिल गया हो, तो जो उसको प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता उसको हुई। फिर उसने दीक्षा की इच्छा प्रकट की। गुरु महाराज बोले, ‘तुमको दीक्षा भागलपुर में मिलेगी। भागलपुर आश्रम आओ।’ नियत समय पर वह भागलपुर कुप्पाघाट आश्रम पहुँची। कुप्पाघाट आश्रम में ही उसने गुरुदेवजी से दीक्षा प्राप्त की और बैठ गयी ध्यान करने के लिए। लगातार तीन घंटे तक बैठी रही ध्यान में। तीन घंटे के बाद वह अपने कमरे से निकलकर परम पूज्य गुरुदेव के निकट आयी। उसके हाथ कागज का एक टुकड़ा और एक पेन्सिल थी। चित्र बना-बनाकर गुरुदेव को दिखलाने लगी कि साधनानुभूति प्रथम कैसी, दूसरी कैसी और तीसरी कैसी! किस-किस तरह की अनुभूतियाँ होती हैं, वर्णन करने लगी। उसके बतलाने के बाद गुरु महाराज ने पूछने की कृपा की-’ संतमत की साधना तुमको कैसी लगी? वह कहती है, ‘गुरु महाराज! Very easy and very hard’ संतमत की साधना सरल-से-सरल है और कठिन-से-कठिन है।
अभी आपलोगों ने वेदमंत्र में सुना। यह क्या है? कठिन-से-कठिन है और सरल-से सरल है। हमलोग इन्द्रियों के द्वारा वस्तुओं को ग्रहण करते हैं; लेकिन जिन वस्तुओं का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा करते है, उन वस्तुओं की भी अभिव्यक्ति की शक्ति हमारी इन्द्रियों में नहीं है। फिर जो इन्द्रियातीत है, उसके सम्बन्ध में हमारी इन्द्रिय क्या कह सकती है! परमात्मा इन्द्रियातीत है और हम इन्द्रियगम्य। वस्तु की भी बात सही रूप में नहीं बतला सकते हैं। हमको कोई एक रसगुल्ला, एक पेड़ा और टिकरी खिला दे और तीनों का स्वाद पूछे कि कैसा-कैसा लगा, तो हम क्या कहेंगे? मीठा लगा। फिर पूछे कि टिकरी कैसी लगी, तो उत्तर देंगे-मीठा लगा। अरे भाई! मीठे-ही-मीठे हैं, तो तीनों में अन्तर क्या है? क्या कुछ बतला सकते हैं? नहीं बतला सकते हैं। जितना भी खाया है, स्वाद लिया हैं जिभ्या से ही; लेकिन जिभ्या नहीं बतला सकती है। तब जो इन्द्रियातीत है, उसका वर्णन इस जिभ्या इन्द्रि के द्वारा हो, कैसे सम्भव है?
आँख से हम रूप देखते हैं। कान से हम शब्द सुनते हैं। नासिका से हम गन्ध ग्रहण करते हैं। जिभ्या से हम रसास्वादन करते हैं। मुख से हम भोजन करते हैं। नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करते हैं। एक-एक इन्द्रिय के लिए एक-एक काम नियुक्त हैं दो छेद कान में भी हैं और दो छेद नाक में भी; लेकिन नाक का काम कान और कान का काम नाक नहीं कर सकती। एक-एक इन्द्रिय के लिए जैसे एक-एक विषय नियुक्त है, उसी तरह वह परमात्मा किसका विषय है? वह चेतन आत्मा का विषय है। वह हमारा विषय है। वह जीवात्मा का विषय है। इसके अतिरिक्त और किसी का विषय नहीं है। आँख जब ग्रहण करेगी, तो रूप को ही। कान जब ग्रहण करेगा, तो शब्द को ही। इसी तरह जीवात्मा जब ग्रहण करेगा, तो परमात्मा को ही ग्रहण करेगा। यह सरल साधना है। इसकी साधना हमलोगों को मिली हुई है। हमलोग अपने-अपने समय को सही रूप में व्यतीत करें। इधर-उधर घूमने-फिरने, हास-परिहास करने में नहीं बिताएँ। अपने समय का सदुपयोग हमलोग करें। यह स्वर्ण-संयोग मिला हुआ है। वर्षों व्यतीत हो गए, परमाराध्य श्रीसद्गुरुदेव महाराजजी के साथ मैं यहाँ आया था। क्या आज वह संयोग मिल सकता है? आज भी तो आया हूँ; लेकिन गुरुदेवजी का संग आज नहीं है। इतने सत्संगी भारत के कोने-कोने से यहाँ इकठ्टे हो गए हैं। क्या यह संयोग फिर मिलेगा? सब लोग बैठकर यहाँ ध्यान करें, सत्संग करें। समय का सदुपयोग करें। मैं आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और जो आशीर्वाद के योग्य हैं, उनको आशीर्वाद देता हूँ।

स्थान: ऋषिकेश दिनांक 26-6-1993


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
अभी आपलोग पूर्व वक्ता से सुन रहे थे-
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान।
संतमत जग में जीने की कला बतलाया है। एक गृहस्थ एक साधु बाबा के पास जाकर कहा कि हमलोग ध्यान करते है, तो ध्यान में मन नहीं लगता है और आप भी तो ध्यान करते हैं। ध्यान करते-करते इतने महान कैसे हो गए? साधु बाबा ने कहा-‘कल सबेरे आठ बजे आन, तब मैं तुमको बतला दूँगा।’ दूसरे दिन ठीक आठ बजे गृहस्थ बाबा की कुटिया में पहुँचा, तो देखा कि साधु बाबा नहीं हैं। किसी से पूछा कि साधु बाबा कहाँ गए, तो उत्तर मिला कि वे बाड़ी में हैं। गृहस्थ बाड़ी में उनके पास जाकर बोला-‘बाबा! आज आठ बजे का समय मुझे दिया था, इसलिए मैं आया हूँ।’ उपदेश दिया जाय कि कैसे भजन में मन लगेगा। उस समय वे साधु बाबा बाड़ी में धान के पौधो को उखाड़-उखाड़कर एक खेत से दूसरे खेत में लगा रहे थे। स्वावलम्बी जीवन था उनका। वे भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन नहीं करते थे। गृहस्थ ने पुनः प्रार्थना की-‘बाबा! उपदेश दीजिए।’ साधु बाबा ने कहा-उपदेश तो तुमको दे रहा हूँ जी।’ गृहस्थ ने कहा-बाबा! मैं तो देख रहा हूँ कि आप इधर से पौधा उखाड़कर उधर रोप रहे हैं। इसमें उपदेश क्या हुआ?’ साधु बाबा ने कहा-‘अरे भाई! तुम समझ नहीं रहे हो! यही तो उपदेश है कि जिस दुनियादारी में तुम्हारा मन गड़ा हुआ है, वहाँ से उखाड़ो और परमात्मा में लगाओ। तुम्हारा मन संसार में गढ़ा हुआ है। संसार से मन को उखाड़ो और परमार्थ-चिन्तन में रोपो। कमठ-दृष्टि अर्थात् कछुवी की दृष्टि कैसी होती है, तो संत पलटू साहब कहते हैं-
आप रहे जल माहि, सूखे में अंडा देवै।
कछुवी अंडा देती है सूखी जमीन में; लेकिन स्वयं पानी में रहती है। चिड़िया भी अंडा देती है। उसको वह उसपर बैठकर सेती है; लेकिन कछुवी अंडे पर बैठकर सेती नहीं है। वह जल में रहती है और अपनी सुरत से अंडो को वह सेती है। उसी में वह अंडा बढ़ता जाता है, पुष्ट होता है और फूटता है, फिर बच्चा बनकर निकल जाता है। कहते हैं-जो कछुवी अण्डा देती है, उस कछुवी को यदि मार दे, तो वह अंडा बढ़ता नहीं, सड़ जाता है। अब समझिये। कछुवी कहाँ और अंडा कहाँ! वह जल में आहार करती है, बिहार करती है, सब व्यवहार करती है; लेकिना उसकी सुरत उन अंडों पर लगी रहती है।
उसी की उपमा देकर सन्त पलटू साहब कहते हैं-हमलोग संसार में रहें और सभी कार्य-कलापों को करते हुए अपना ख्याल अपने इष्ट पर लगाए रखें।
जो गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर।।
कछुवी का दृष्टांत हम अपने गुरु महाराज के भी वचन में पाते हैं-
गुर हरि चरण में प्रीति हो युग काल क्या करे।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो जंजाल क्या करे।।
अगर हमारी कछुवी की-सी दृष्टि हो जाय, प्रभु पर ख्याल लगा हुआ रहे, तो फिर जग-जंजाल कुछ नहीं कर सकता है। हम कामों को करते रहें-तन काम में; परन्तु मन राम में रहे।
कर ते कर्म करो विधि नाना।
सुरत राख जहाँ कृपा निधाना।।
लौकिक और पारलौकिक-दोनों जगत में जीने की यह कला सन्तमत बतलाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।
मेरा स्मरण भी करो और युद्ध भी करो। वह युद्ध का मैदान कैसा था? आजकल का युद्ध का मैदान नहीं था। उस समय का युद्ध था-उधर से तीर आ रहा है। उस तीर से अपनी रक्षा करना और अपने तीर से उसके शरीर को बेधकर उसका नाश करना। जरा-सी भी चूक न हो पाय। उस विषम समय में भी भगवान कह रहे हैं-मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो। कोई कहे कि इस तरह क्या हो सकता है? उत्तर में निवेदन है-हो सकता है। किस तरह! जब कोई विशेष कार्य भार हमारे ऊपर आ जाता है, उस समय किसी भी कार्य को करते हुए सतत वह कार्य हमारे दिमाग में घूमता है। खा रहे हैं, पी रहे हैं, वह बात मस्तिष्क में घूमती रहती है। हमारेा सामने चार तरह के कार्य आते हैं-एक अत्यावश्यक, दूसरा आवश्यक, तीसरा साधारण और चौथा गौण। अत्यावश्यक कार्य को हम प्राथमिकता देते हैं, आवश्यक को दूसरा स्थान देते हैं, साधारण को तीसरा स्थान और गौण को चौथा स्थान देते है। जिस दिन भगवद्भजन को प्राथमिकता दे देंगे, अत्यावश्य की संज्ञा देंगे, उस दिन भूलेंगे नहीं। अभी हमलोग भगद्भजन को गौण बनाए हुए हैं। इसलिए मौन बैठे हुए हैं। ऐसा अभ्यास हो कि कार्यरत रहते हुए मन से मंत्रवृत्ति होती रहे। अभी हम बैठती हैं, मंत्र-जाप करने के लिए; लेकिन जप करने की जगह गप करने लग जाते हैं। क्यो? ऐसा होता क्यों है? इसलिए कि जिस समय हम कार्यों को करते हैं, उस समय उन कार्यों में ही संलग्न हो जाते हैं। यदि उन कार्यों के साथ हमारा जप चलता रहे, तब यदि हम केवल जप के लिए बैठेंगे, तो वह कार्य याद नहीं आएगा; लेकिन कार्य के समय हम कार्यरत हो जाते हैं और जप-ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो वह कार्य दिमाग में चक्कर काटने लगता है। यदि हमारा मन कार्य करते हुए उस प्रभु की ओर लगा रहे, जप में लगा रहे, तो केवल जप-ध्यान करने के लिए बैठेंगे, तो वह कार्य याद नहीं आएगा।
हम भजन को प्राथमिकता नहीं देते हैं। यही संत पलटू साहब कहते हैं-
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान।
सो ध्यानी परमान सुरत से अण्डा सेवै।।
आप रहै जल माहि सूखे में अण्डा देवै।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै।।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै।।
फनि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै।
वह गाफिल न पडै़ सुरति मनि माहि रहावै।।
पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान।।
एक उपमा तो ये कछुवी की देते हैं। दूसरी उपमा देते हैं पनिहारी की।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै।।
अर्थात् जैसे पनिहारी पानी भरने के लिए जाती है। आजकल की पनिहारी नहीं कि नल दबाया, घड़ा भर गया और चल दिए। उस जमाने की पनिहारी की बात है-स्त्रियाँ कुएँ पर जाती थी, पानी भरने के लिए। एक हाथ में रस्सी-बाल्टी रहती थी, जिससे कुएँ से पानी निकालती थी। पानी से घड़ो को भर जने पर एक घड़ा उसके सिर पर रहता था, दूसरा घड़ा उसकी काख में। काख के घड़ो को तो बाएँ हाथ से पकड़े रहती और जिस बाल्टी से पानी निकालती है, वह बाल्टी-रस्सी उसके दाएँ हाथ में है।
विचारणीय विषय है कि सिर पर जो घड़ा है, उसको किससे, कैसे पकड़ा है? साथ ही फिर सखी-सहेली से बातचीत भी करती जाती है। सिर पर का घड़ा हाथ में पकड़ा हुआ नहीं है, सुरत की पकड़ में है और बातचीत करती हुईा चली जा रही है। तीसरी उपमा देते हैं-
फनि मनि धरै उतारि, आपु चरने को जावै।
वह गाफिल ना पड़ै, सुरति मनि माहि रहावै।।
जिस सर्प में मणि होती है, वह घनघोर जंगल में रहता है। जब बहुत रात बीत जाती है, तब वह अपने बिल से निकलता है। मणि को मुँह से उगल देता हैं। उस मणि से जो प्रकाश निःसृत होता है, उसमें कीड़े-मकोड़े आते है, उस प्रकाश को देखकर। उन कीड़े-मकोड़ो को वह खा लेता हैं। पेट उसका भर जाता है, फिर उस मणि को मुँह में लेकर बिल में प्रवेश कर जाता है। ये तीन तरह की उपमाएँ दी गयी हैं। ये तीनों उपमाएँ क्या बतलाती हैं?
पहली उपमा बतलाती हैं कि मानस जप करो। दूसरी उपमा बतलाती है कि मानस ध्यान करो। तीसरी उपमा बतलाती है कि दृष्टियोग करो।
मतलब कछुवी कहीं हैं, अंडा कहीं है। उसी तरह जिस इष्ट का हम मंत्र-जप करते हैं, वे इष्ट तो कहीं हैं और हम कहीं हैं। दोनों में दूरी है। जैसे कछुवी का ख्याल सतत अंडे पर रहता है, वैसे हम जप निरंतर करते रहे।
यह पहली उपमा मानस जप के लिए है। दूसरी उपमा है मानस ध्यान के लिए। मानस ध्यान क्या है? मानस ध्यान जब हम करते हैं, तो रूप को हम सामने लाते हैं। वह कहीं दूर नहीं है। जिस तरह पनिहारी के सिर पर ही घड़ा है, उसके अंग संग ही है, उसी तरह मानस ध्यान अंग संग होता है। जिस इष्ट का हम ध्यान करते हैं, उसी की मानस मूर्ति के ऊपर हमारी वृत्ति रहनी चाहिए। लक्ष्य हमारा उसी पर रहना चाहिए। मनोभावना हमारी उच्च कोटि की होनी चाहिए। तीसरी उपमा है मणिवाले साँप की। मतलब यह कि जिस तरह प्रकाश में साँप विचरण करता है, उसी तरह साधक जब दृष्टि-साधन की क्रिया करता है, तब वह अपने आपको प्रकाश में पाता है। उस प्रकाश में ही वह विचरण करता है। प्रकशकीय वृत्ति उसमें रहती है और तदनुकूल जब-व्यवहार करता है, आचरण करता है। यह दृष्टि-साधन की क्रिया है। तो ये तीनों क्रियाएँ-मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन की क्रिया संत पलटू साहबजी एक साथ बतला देते हैं, यह एक साथ एक करो। जब इन क्रियाओं में कुशल हो जाओेगे, तब वह चौथी क्रिया आएगी-‘धुन आनै जो गगन की, सो मेरा गुरुदेव।’ तो वह धुन की बात तो पीछे की है।
धुन की बात तो तब है, जब सुरत शून्य में चली जाती है। जबतक सुरत शून्य में नहीं जाएगी, तबतक क्या सुनेंगे! इन क्रियाओं को करते हुए संसार में रहो। रामकृष्ण परमहंस देवजी कहते हैं-संसार में तुम रहो, तो किस तरह रहो? कटहल काटने के उपमा देते हुए वे कहते हैं-देखो, कटहल काटते हो सब्जी-तरकारी बनाने के लिए। तो कटहल काटने के पहले हाथ में तेल लगा लेते हो। अगर हाथ तेल नहीं लगाओगे, तो हाथ में लस्सी लग जाएगा। उसी तरह अपने हृदय को भगवद्भक्ति से तर कर लो-भिंगा लो। फिर संसार का काम करो, सांसारिकता नहीं आएगी। उन्होंने दूसरी उपमा दी, कहा-पानी में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं है; लेकिन नाव में पानी आना चाहिए, नहीं तो नाव को डुबा देगा।
तीसरी उपमा उन्होंने दी है-कोई गाय का रखवाला है, गौ की सेवा करता है। नौकर है। वह ठीक समय पर गाय को खिलाता है, पानी पिलाता है। जाड़े के समय में धूप में रखता है, गोबर फेंकता है। राख फेंकता है। सारी सेवा-शुश्रूषा वह करता है; लेकिन अगर कोई गाय बियाती है, तो वह गोपालक क्या कहता है-मालिक की गाय बियायी है। वह यह नहीं समझ रहा है कि मेरी गाय है। वह समझ रहा कि मालिक की गाय है। वह समझ रहा कि मालिक की गाय है। उसी तरह तुम परिवार में रहो, सारी सेवाएँ करो; लेकिन मन से जान रखो कि यह तुम्हारा नहीं, तुम्हारे मालिक का है। आमदानी है तो मालिक की और खर्च है तो मालिक का यह भावना रखो। सहजोबाई कहती हैं-
सहजो जग में यों रहो, ज्यो जिभ्या मुँह माहि।
घीउ घना भोजन करै, तौ भी चिकनी नाहि।।
घी लगा दीजिए देह पर, चिकनी हो जाएगी। जिभ्या रहती है मुँह में, जिभ्या पर घृत लगाने से चिकनापन नहीं आता। उसी तरह संसार में रहो; लेकिन संसार का चिकनापन नहीं आना चाहिए, लेप नहीं लगाना चाहिए। यह संतमत बतलाता है।
चीन में एक महात्मा हुए। उन्होंने देखा कि अब मेरा अंतिम समय है, तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-देखो, कल जैसे सूर्योदय होगा, तो मेरे जीवन का अस्त होगा। तुमलोग सूर्योदय के पहले आकर भेंट कर लेना। एक उपदेश दूँगा तुमलोगों को। बहुत बूढ़े हो गये थे। सब शिष्य नियत समय पर पहुँच गये। महात्मा जी बोले-अंतिम समय में उपदेश देता हूँ। यह कहकर उन्होंने अपना मुँह खोलकर दिखला दिया और पूछा-देखा? शिष्यों ने कहा-जी हाँ, देखा। साधु बाबा ने पूछा-क्या समझा? शिष्यों ने कहा-नही समझा। मेरे मुँह में दाँत है? शिष्यों ने कहा-जी नहीं। आपके मुँह में एक भी दाँत नहीं है। साधु बाबा ने कहा-यही उपदेश दिया, समझा? शिष्यों ने कहा-जी, नहीं समझा। साधु बाबा ने पूछा पहले जिभ्या आयी थी या पहले दाँत आया था। शिष्यों ने कहा-जिभ्या तो जन्म से ही साथ रहती है और दाँत तो बीच में आया और बीच में ही चला गया। साधु बाबा ने कहा-यही उपदेश दिया, समझा? शिष्यों ने कहा-हमलोगों ने नहीं समझा। साधु बाबा ने कहा-अरे देखो, दाँत होता है कड़ा और जिभ्या होती है मुलायम। जो कड़ा, सो झड़ा और जो मुलायम रहता है, उसी की स्थिति रहती है। इसलिए दुनिया में जीना चाहो, तो मुलायम बनकर रहो।

स्थान: भागलपुर दिनांक-2-5-1993 ई0



समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
संसार के सभी प्राणी सुख की इच्छा रखते हैं। प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है। वह भी सुख प्राप्ति के लिए विविध प्रकार के प्रयत्न करता है। जब से नींद टूटती है, तब से लेकर जबतक निद्रा देवी की गोद में नहीं जाता, वह प्रयत्नशील रहता है। प्राप्त सुख से वह संतुष्ट नहीं होता, वरन सुख की वृद्धि और अति वृद्धि चाहता है। इतना ही नहीं, उनकी अभिवृद्धि कहाँ तक हो, उसकी सीमा रेखा उसके मस्तिष्क में नहीं होती। यह बात विचित्र-सी लगती है कि सुदूर रहकर जिसको हम सुखी और सम्पन्न समझते हैं, उनके निकट जाने पर वे भी दुःखी ही दीखते ळे। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विश्व में ऐसा कोई नहीं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अथवा मानसिक; किसी-न-किसी पीड़ा से पीड़ित नहीं हो। बात क्या है? लोग धनवान, बलवान, गुणवान, रूपवान, ऐश्वर्यवान, प्रभृति होते हुए भी दुःखी क्यो दीखते हैं?
यथार्थ बात यह है कि सुख कहीं है और उसकी खोज हो रहीं कहीं है। दूसरे शब्दों में-
सुख है नहीं जहाँ। खोज हो रही तहाँ।।
संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
वस्तु कहीं ढुँढै कहीं, केहि विधि आवै हाथ।
बस, यही बात चरितार्थ हो रही है और जागतिक नश्वर भोग जो हमें मिलता है, बस उसी में हम मस्त रहते हैं। एक लघु कथा है, सुनिए-
आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा थे। उनको गाय नहीं थी। अतएव बालपन में उनको पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था। उनके बाल साथी जब बाल-क्रीड़ा के समय एकत्र होते, तो कहते कि हमलोग गाय का दूध पीते हैं और तुमको पीने के लिए दूध नहीं मिलता है। ऐसा कहकर उनको चिढ़ाया करते थे। वे बेचारे रोते हुए अपनी माता के पास आते और कहते-माँ! मुझे गाय का दूध पिलाओ, मेरे संगी साथी गाय का दूध पीकर खेलने जाते हैं। बेचारी माता के पास लाचारी थी, गाय थी नहीं, वह करती क्या? अरवा चावल को पीसकर, पानी में घोलकर और चीनी मिलाकर उनको पीने देती; कहती ले बेटा! गाय का दूध पी। बड़ी प्रसन्नता के साथ अश्वत्थामा उसको पी लेते और अपने साथियों से कहते कि अरे! मैंने भी गाय का दूध पिया है।
विचारणीय है कि वे ही अश्वत्थामा जब बड़े होंगे और उनको मालूम हुआ होगा कि मुझे पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था; बल्कि चावल को पानी में पीसकर चीनी मिलाकर मुझे पीने के लिए दिया जाता था। गाय का दूध कहकर, तो उनको कितनी आत्म-ग्लानि, कितनी लज्जा और कितना पश्चाताप होता होगा?
ठीक यही हालत हमारी है। हम भी मायिक मिथ्या सुख को जो विषयोपभोग करने पर हमें मिलता है; सत्य सुख समझकर हम मस्त हो रहे हैं-उन्मत्त-से हो रहे हैं। जिन विषयों को संतों ने वमन-सदृश जानकर परित्याग कर दिया, उन्हीं विषयों को हम श्वान की नाई स्वाद से स्वीकार कर प्रसन्न होते हैं, फूले नहीं समाते हैं।
जो विषया सन्तन्ह तजी, मूढ़ ताहि लपटात।
जौं नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात।।
विचारणीय है कि ज्ञान बढ़ने पर जब हमको विषय-सुख की असारता का बोध होगा, तो हमें भी कितनी ग्लानि, कितनी लज्जा और कितना दुःख एवं पश्चात्ताप होगा। अतएव हम सबेरे से ही क्यों न सँभलें?
महान आश्चर्य है कि सन्तों की सद्वाणी सुनकर भी हमारे कानों जूँ तक रेंगने नहीं पाती और हम विषयों-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द को पाकर, उन विषयों को भोगकर तृप्त होना चाहते हैं-सुखी होना चाहते हैं, कब सम्भव है! विषयोपभोग कर आज तक कोई सन्तुष्ट हुआ है-किसी ने सुख अनुभव किया है? गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
पावक काम भोग घृत ते सठ कैसे चहत बुझायो।
तथा-
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी ते।
संतों ने कहा-अरे मानव! जरा सोच-विचार और समझ कर देख। तू जिन पंच विषयों को भोगकर सुखी होना चाहता है, उन पंच विषयों के भोग और उनके परिणाम कैसे है; श्रवण कर। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-
मृग-मीन-भृंग-पतंग-कुंजर एक दोष विनासहीं।।
पंच दोष असाध्य जामें ताकी केतिक आसहीं।।
मृग को कर्णेन्द्रिय का विषय-शब्द बहुत प्रिय प्रतीत होता है। इसलिए वह व्याधे की मीठी-मधुर सुरीली वंशी की तान सुन, जाल में फँसकर अपनी जान देता है। झष जिभ्या के रस में फँस परवश हो प्राण गँवाता है। भौंरा सरोवर-कूल-स्थित कमल-फूल पर जाता है और उसकी सुगन्धि में मशगूल हो अपने को भूल जाता है। उसको उसके पराग से इतना अत्यधिक अनुराग है कि पिण्ड से प्राण भले भाग जायँ; किन्तु वह उसको त्याग कर भाग नहीं सकता। कुछ काल पश्चात् रात होती है और अरविन्द की बिखरी पँखुड़ियाँ बन्द हो जाती हैं। परिणाम स्वरूप चन्द समय में उसका भी प्राणस्पन्द बन्द हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में निशीथ के पश्चात् प्रभात में गयन्द के पदाघात से उसका प्राणान्त होता है।
जिस नेत्र-विषय रूप में लोलुप हो बड़े-बड़े भूप तम-कूप में गिरे हैं, वहाँ बेचारे पतंग को बचने का ढ़ंग कहाँ? वह नेत्र-विषय रूप लोलुप हो प्रदीप के प्रकाश में अपना नाश करता है। इसी प्रकार मतिमन्द गयन्द स्पर्श विषय के फन्द में पड़ अपने जीवन-विध्वंस का कारण बनता है।
इस भाँति हम देखते हैं कि एक-एक विषय में आसक्ति के कारण एक-एक जीव की जान जाती हैं; किन्तु हम मानव की तो इन पाँचों विषयों में अनुरक्ति है और उनपर विजय पाने के लिए न तो शारीरिक शक्ति है और न मानसिक विरक्ति ही। फिर इतने पर भी हम जीवित हैं, यह इस तुच्छ जीव पर पीव को अति कृपा है।
और भी देखिए, हम जिन पंच विषयों के भोग में सुख-प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, उन पंच विषयों के भोग के परिणाम क्या हैं, विचारिय। सन्तजन कहते हैं-विषय तत्व विषवत् हैं। समस्त संसार पंच विषयों से भरा है, जैसे स्वर्ण-घट में विषरस। जरा विचार करें, यदि हम ‘विषय’ शब्द लिखना चाहेंगे, तो कैसे लिखेंगे? विषय में तीन अक्षर हैं-‘वि’ ‘ष’ और ‘य’। इन तीनों अक्षरों में ‘य’ को ढक्कन समझिये। अब ‘विषय’ में से ‘य’ रूप ढक्कन को हटाकर देखिए, क्या बचता है? ‘विष’। फिर ‘विष’ पान करके यदि अपने जीवन की आशा हम करते हैं, तो वह दुराशा मात्र हैं और उसमें निराशा अवश्यम्भावी है। इसीलिए भगवान श्रीराम ने अपने राजत्वाकाल में गुरुजन, पुरजन और सज्जन को आमंत्रित करके कहा था-
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्ग स्वल्प अन्त दुखदाई।
नर तन पाइ विषय मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
अर्थात् हे भाई! इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त करने का फल विषयों का भोगना नहीं है। यदि स्वर्ग प्राप्त कर सको, तो वह भी स्वल्प और अन्त में दुःख देनेवाला हैं नर-तन पाकर जो अन विषयों में मन लगाता है, वह मूर्ख अमृत के बदले विष लेता है। उसको कभी कोई अच्छा नहीं कहता, जो पारसमणि खोकर करजनी लेता है।
इस उपदेश के अन्दर भगवान का आदेश है कि उत्कृष्ट मानव-शरीर पाकर सर्वोत्कृष्ट सुख के लिए सर्वेश्वर की भक्ति करो, जो इन्द्रियातीत और विषयातीत है। बिना सर्वेश की आराधना किए वह शाश्वत सुख दूर ही नहीं, सुदूर है। इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के आकाशवत् अलोल और एवं अनमोल बोल सुनें। कितनी दृढ़ता है उनकी वाणी में? वे कहते हैं-
सिव अज सुक सनकादिक नारद।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।
सब कर मत खगनायक एहा।
करिय राम पद पंकज नेहा।।
श्रुति पुराण सद्ग्रन्थ कहाहीं।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।
कमठपीठ जामहिं बरु बारा।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहु विधि फूला।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना।
बरु जामहिं सस सीस विषाना।।
अन्धकार बरु रबिहि नसावै।
राम बिमुख न जीव सुख पावै।।
हिम ते प्रकट अनल बरु होई।
विमुख राम सुख पाव न कोई।।
दोहा-
बारि मथै घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल।।
अर्थात्-शिव, ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादिक, नारद और जो मुनि ब्रह्म-विचार में प्रवीण हैं, हे पक्षिराज! सबका यही मत है कि राम के चरणकमल में प्रेम करना चाहिए। वेद, पुराण और सब ग्रन्थ (सद्ग्रन्थ) कहते हैं कि राम की भक्ति के बिना सुख नहीं हैं। कछुए की पीठ चाहे बाल जम आवें और चाहे बाँझ का बेटा किसी को मार डाले; चाहे आकाश में बहुत तरह के फूल फूलें; परन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता। चाहे मृगतृष्णा का जल पीने से प्यास दूर हो जावे; चाहे खरहे के माथे पर सींग जम आवे; जीव सुख नहीं पा सकता। चाहे पाले से अग्नि प्रगट हो जावे; परन्तु राम से विमुख होकर सुख नहीं पा सकता। चाहे पानी के मथने से घी हो जाय; चाहे बालू से तेल निकल आवे; परन्तु यह सिद्धान्त अटल है कि बिना हरि -भजन के कोई संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकता।
अतएव नित्य सत्य एवं शाश्वत सुख के लिए ईश्वर-भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर-स्वरूप इन्द्रियातीत होने के कारण उसका सुख भी इन्द्रियातीत है। अतएव इन्द्रियों के द्वारा उस सुख की प्राप्ति कदापि हो नहीं सकती और न कोई भी इन्द्रिय उसके सम्बन्ध में कुछ कह सकती है। जो इन्द्रियों का विषय नहीं-जो अनिर्वचनीय है, उसके सम्बन्ध में वाणी मूक है, ठीक उसी तरह जैसे गूँगे को मीठा फल खिलाया जाय, तो वह उसके विषय में कुछ कह नहीं सकता। इस विषय का स्पष्टीकरण सूरदासजी महाराज ने इस भाँति किया है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस अन्तर्गत ही भावै।।
परम स्वाद सब ही जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर सो जानै जो पावै।।
अमित तोष के लिए संतों ने ईश्वर की भक्ति बतायी; क्योंकि वह परम स्वाद और परम तृप्ति ईश्वर में ही है। यही हेतु है कि इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार किया जाता है।

स्थान: महुआ बाजार (सहरसा) दिनांक-26-3-1993


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
एक लड़की का विवाह हुआ। वह ससुराल गई। अडोस-पड़ोस के लोग उसको देखने आए। क्रम-क्रम से लोग देखकर लौटते थे। थोड़ी दूर पर एक बूढ़े बाबा बैठे थे। नव वधू को देखकर जो लौटते-बूढ़े बाबा उनसे पूछते-‘कहो, कैसी वधू आयी है; देखने में कैसी है? छोटी बच्ची देखकर लौटती, वह कहती कि मेरी ही जैसी है। किशोरी देखकर लौटती, तो उससे पूछने पर वह कहती-मेरी ही जैसी है। युवती देखकर लौटती, तो वह कहती-मेरी जैसी है। कोई बूढ़ी देखकर लौटती, तो उससे पूछने पर कहती कि मुझको न देखो, उसको देखो। सबकी बातों को सुनकर बूढ़े बाबा हैरान हो गए। वे सोचने लगे नव वधू आयी है। वह बच्ची होगी, युवती होगी वा बूढ़ी होगी; लेकिन बात क्या है कि जिससे पूछता हूँ, वह अपनी जैसी बताती है। बूढ़े बाबा स्वयं देखने गए। उन्होंने देखा-वास्तव में वह वधू अतीव सुन्दरी है, उसके चेहरे से आइने सदृश चमक निकलती थी। तो जो कोई देखने जाते थे, वे उस आइने में अपना ही स्वरूप देखते थे। इसलिए बच्ची कहती-मेरी जैसी। किशोरी कहती मेरी जैसी। युवती कहती-मेरी जैसी। बूढ़ी कहती-मुझको न देखो, उसको देखो। उसी तरह आपलोगों ने जो मेरा अभिनन्दन किया है, उसमें जितने सद्गुणों के वर्णन आए, वे सभी सद्गुण आपलोगों के हैं। आपलोगों ने अपने-अपने ही सद्गुणों को देखा है मुझमें । वे सद्गुण मुझमें कहाँ?
स्वामी विवेकानन्दजी महाराज विश्व-धर्मसम्मेलन में गए हुए थे अमेरिका के शिकागो शहर में। विभिन्न देशों के धर्मप्रेमी वहाँ आए हुए थे। सभी धर्मों की पुस्तकें वहाँ सजायी गयी थीं-उपर-नीचे क्रम से। पाश्चात्य देशों के लोग यह समझते थे कि भारत अध्यात्म-ज्ञान से हीन है। भारतवासियों को वे लोग हेय दृष्टि से देखते थे। इसलिए उन्होंने जो पुस्तकें सजायी थीं, उसमें वेद को सबसे नीचे रखा था तथा ऊपर में अन्य धर्मग्रंथो को। सबसे ऊपर में बाईबिल को रखा था। स्वामी विवेकानन्द जब उस मंच पहुँचे और उन्होंने पुस्तक की सजावट देखी, तो बात उनकी समझ में आ गयी कि किस दृष्टि से धर्मग्रंथों को इस तरह रखा गया है। चूकि ये लोग वेद को हेय दृष्टि से देख रहे हैं, इसीलिए इसको सबसे नीचे रखा है। उनलोगों की भावना इनकी परख में आ गई। लेकिन उन्होंने कहा क्या-धर्मग्रंथों की सजावट देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। जिस तरह की सजावट होनी चाहिए, उसी तरह से सजायी गई है। ग्रंथों की सजावट यह बतलाती है कि सभी धर्मग्रंथों का मूल वेद है; क्योंकि वेद पर ही ये सारे धर्मग्रंथ टिके हुए हैं। अगर वेद को नीचे खिसका ले, तो जितने धर्मग्रंथ हैं, सभी ढनमनाकर नीचे गिर जाएँगे।
उसी तरह आपलोग तो नीचे बैठे हैं और मुझे ऊपर बिठाया है, आपलोगों के आधार पर मैं बैठा हूँ। अगर आपलोग हाथ हटा लेंगे तो मैं भी ढनमनाकर नीचे गिर जाऊँगा। ऊपर बैठने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। बड़े तो आपलोग हैं, जो मुझे आश्रय दिए हैं बैठने के लिए।
यह संतमत का सत्संग है। इस संतमत के द्वारा ईश्वर की भक्ति का प्रचार होता है। वह ईश्वर है क्या? इन्द्रीयातीत संतमत बतलाता है कि बिना उस ईश्वर का भजन किए जीवों का कल्याण नहीं। प्राणियां का कल्याण ईश्वर-भजन में है। ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी। जैसे आईने के माध्यम से हम अपने चेहरे को देखते हैं, उसी प्रकार अन्तर्ज्योति का सहारा लेकर परमात्मा को देखा जाता है। इसलिए संतमत की ईश्वर-भक्ति में दिव्य ज्योति और दिव्य नाद को प्राप्त करने का आग्र है, जिनके माध्यम से परम प्रभु की प्राप्ति होती है। मतलब यह कि परमात्मा का अस्तित्व है। वे परम प्रभु परमात्मा बिगड़ता है। लेकिन परम प्रभु परमात्मा सतत रहते ही हैं। उनका साक्षात्कार अपने-अपने अन्दर में होगा। इसके लिए अन्तःसाधना की आवश्यकता है। वह अन्तस्साधना मानस जप है। मानस ध्यान है, दृष्टिसाधन है और नादानुसंधान है। इन चार साधनाओं के द्वारा हम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर सकते है; किन्तु इसके बतलानेवाले के सुयोग्य गुरु की आवश्यकता है, जो क्रियावान और शुद्धाचरणी हों। बिना क्रियावान शुद्धाचरणी गुरु के उस प्रभु को हम नहीं प्राप्त कर सकते। संतमत में गुरु का सर्वोपरि स्थान है। हम सद्ग्रंथो का अध्ययन-मनन एवं अवलोकन करते हैं, तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
खास देवघर में देवघर जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन था। पटना के एक अच्छे विद्वान आए हुए थे उनका उद्घाटन करने के लिए। उनको हनुमानजी में बड़ी आस्था थी। अपने उद्घाटन-भाषण में उन्होंने हनुमानजी की बड़ी महिमा गाई और कहा कि हम नित्यप्रति ‘हनुमान-चालीसा’ पढ़ते हैं। आपलोग भी जो पढ़ना चाहें, तो हाथ उठाएँ। मैं ‘हनुमान-चालीसा’ की एक-एक प्रति दूँगा। कुछ प्रतियाँ वे अपने साथ वहाँ ले गए थे। कुछ लोगों ने हाथ उठाया और उन्होंने उनलोगों को एक-एक प्रति ‘हनुमान-चालीसा’ दी।
उनका प्रवचन समाप्त हुआ, फिर हमारे साथी लोगों का प्रवचन हुआ। अन्त में मेरी बारी आयी तो मैंने कहा-लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने हनुमानजी के अतिरिक्त अन्य देवों की भी स्तुतियाँ की हैं। जिस तरह कोई एक साध्वी महिला जिस परिवार में रहती है, उसके सभी सदस्यों का यथोचित आदर-सत्कार, सेवा-सम्मान आदि वह करती है; किन्तु उसका एकनिष्ठ सूत्र अपने पति से लगा रहता है। उसी तरह गोस्वामीजी मर्यादा सबको देते हैं; लेकिन अपना एक इष्ट बनाए रहते हैं। चूँकि वे पढ़े लिखे विद्वान थे, इसलिए उनके कहने की जो कला है, वह अद्भूत है। वे ‘हनुमान-चालीसा’ का आरम्भ कहाँ से करते हैं?
श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार।।
सर्वोपरि स्थान किनको देते हैं? गुरुदेव को। दूसरी पंक्ति में लिखते हैं-
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार।
और तीसरी पंक्ति में लिखते हैं-
बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौ पवन कुमार।
अब समझिये, प्रथम स्थान किनका है, दूसरे में कौन हैं और तीसरे में कौन हैं? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के लिए लिखा जाता है कि वे राम के भक्त थे; लेकिन वैचारिक दृष्टि से एकनिष्ठ भक्त वे गुरु के थे। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने मर्यादा दी है सबको। ‘रामचरितमानस’ के आरम्भ में है-
बन्दौ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि।
महामोह तम पुञ्ज, जासु वचन रविकर निकर।।
‘हनुमान-चालीसा’ में देखिए-
जय जय जय हनुमान गोसाई। कृपा करो गुरुदेव की नाई।।
अगर उनके इष्ट राम होते, तो वे कह होते-
जय जय जय हनुमान गोसाई। कृपा करो रघुवर की नाई।।
किन्तु ऐसा वे नहीं कहते हैं। वे हनुमानजी की स्तुति करते हैं और यह कहते हैं-
बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौ पवन कुमार।
मैं बुद्धिहीन हूँ, आपका स्मरण करता हूँ। बल दीजिए, बुद्धि दीजिए, विवेक दीजिए। विचारणीय विषय है कि जब हमको बल, बुद्धि, विवेक कुछ नहीं है, तो हमारा कल्याण किसमें है तो यह भी हम नहीं जानते हैं। ऐसी परिस्थिति में तो ऐसा कहना चहिए था-
जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करो जो तुम्हहि सोहाई।।
न तो यह भगवान राम की दुहाई देते हैं और न हनुमानजी की, बल्कि वे कहते हैं-
कृपा करो गुरुदेव की नाईं।
गुरुदेवे की कृपा कैसी होती है? गोस्वामीजी की दृष्टि किस ओर है, सो देखिए। इन बातों को सुनने के पश्चात् उक्त विद्वान सज्जन ने कहा, ‘हनुमान-चालीसा तो मैं रोज पढ़ता हूँ, मुझे हनुमान-चालीसा कंठस्थ भी है; लेकिन इस पंक्ति पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।’ गोस्वामी तुलसीदासजी स्वयं दोहावली में लिखते हैं-
राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धेनु।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु।।
कलिकाल में रामनाम कल्पवृक्ष के समान है और राम की जो भक्ति है, वह कामधेनु के समान। लोग समझते हैं, कल्पवृक्ष मिल गया, कामधेनु मिल गयी, अब क्या चाहिए! लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-कल्पवृक्ष और कामधेनु को पाकर आंशिक मंगल होगा; लेकिन सकल सुमंगल नहीं होगा। अगर सकल सुमंगल चाहते हो तो-गुरु पद पंकज रेनु।
देखिये, गोस्वामी तुलसीदासजी की दृष्टि किधर है। भगवान राम जब लंका पर विजय प्राप्त कर रावण-कुम्भकर्ण को मारकर विभीषण को लंका का राज्य देकर और सीताजी का उद्धार करके अयोध्या लौटे, तो कौशल्या माताजी भगवान राम को अपनी गोद में बिठाकर प्यार से पूछती हैं-‘बेटा! तुम्हारा शरीर तो कमल से भी अधिक सुकोल है, रावण-कुम्भकर्ण आदि दुर्दान्त राक्षसों का वध तुमने कैसे किया?’ इसके उत्तर में भगवान श्रीराम कहते हैं-
गुरु वशिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपा दनुज रन मारे।।
माँ! मेरा कोई पराक्रम नहीं है। मैंने अपने बल से रावण आदि का वध नहीं किया है। गुरु की कृपा से ऐसा हुआ है। गुरु की कृपा कैसे होती है? सन्त कबीर साहब कहते हैं-
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै।
गुरुदेव तो जीव की काढ़ि भव सिन्धु तें,
फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै।।
बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै।
कहै कबीर तू देख संसार में,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै।।
गुरु का स्थान कितना ऊँचा मानते हैं और कितना आदर देते है! गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
गुर की मूरति मन महि घिआनु।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ।।
अज्ञ जीव जानता नहीं है कि गुरुदेव की कृपा कब और कैसे-किस प्रकार होती है।
एक कामिल फकीर थे। उनके एक शिष्य नवाब थे, जो दूर शहर में रहते थे। फकीर ने अपने निकटवर्ती शिष्य को एक अनार देकर कहा कि जाकर यह अनार नवाब को देना और कहना कि इस अनार को वह खाएगा। शिष्य अनार लेकर पहुँचा है उस नवाब के पास। नवाब के साथ बहुत लोग बैठे हुए थे। उक्त शिष्य ने नवाब को अनार देते हुए कहा कि तुम्हारे मुर्शिद ने यह सन्देश भेजा है तुम्हारे खाने के लिए। लो, खाओ। नवाब सोचते हैं, गुरु महाराज के भेजा हुआ प्रसाद अनार है। उसको तुरत तोड़कर उसके पाँच दाने उन्होंने अपने मुँह में डाले तो अनार इतना खट्टा था कि नवाब साहब को न तो थूकते बनता था और न निगलते ही। अगर थूकते हैं तो गुरु की प्रतिष्ठा में हीनता होती है। गुरु-प्रसाद की मर्यादा रखने के लिए किसी तरह निगल गए। जो शिष्य अनार लेकर गया था, उसने कहा-और खाओ। पाँच दाने खाने में ही तो बेचारे का दम घुटने लगा था, यह कहता है-और खाओ। नवाब सोचते हैं-ये गुरु महाराज के प्रधान शिष्य हैं। इनकी बात कैसे नहीं मानी जाय। तो पाँच दाने और मुँह में डालकर निगल गए और कहा-अच्छा, पीछे खा लूँगा। इसपर उसने कहा-बस! अरे और खाओ। उतने लोग बैठे थे। अब कैसे कहें कि नहीं खाऊँगा। उनकी प्रतिष्ठा की हीनता होती तो जबरदस्ती चार दाने और निगल गए और कहाँ-अच्छा, पीछे खा लूँगा। वह शिष्य लौटकर चला आया गुरु महाराज के पास। गुरु महाराज ने पूछा-अनार नवाब को दिया? शिष्य ने उत्तर दिया-जी हाँ! मुर्शिद ने पूछा-समूचा अनार खाया? शिष्य ने उत्तर दिया-समूचा तो नहीं, किन्तु पाँच-पाँच और चार-कुल चौदह दाने खाए। फकीर ने कहा-मैं क्या करूँ! मैंने तो समूचा अनार भेजा था। अगर उसने समूचा अनार खाया होता, तो जिन्दगी भर उसकी नवाबी रहती, अब मात्र चौदह वर्ष उसकी नवाबी रहेगी। सन्त सद्गुरु तो चाहते हैं कि सुखसिन्धु में ले जाने के लिए; लेकिन शिष्य ही अपनी अल्पबुद्धि की विशेष मानकर चूक कर बैठता है। कबीर साहब ने कहा है।
गुरु बेचारा क्या करे, जो शिष्य माहीं चूक।
भावे जो परबोधिए, बाँस बजाई फूँक।।
संतमत में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। हमारे गुरुदेवजी थे, वे बड़े ऊँचे और महान संत थे। उन्होंने जिस ज्ञान का प्रचार किया, उन्होंने जो शिक्षा-दीक्षा दी, वह बहुत ऊँची थी। उनकी आत्मदृष्टि प्राप्त थी। आत्मदृष्टि से देखकर ही उन्होंने भजन-भेद बताने की आज्ञा कुछ सज्जनों को दी। उनके पास मीटर था, जिस मीटर से जाँचकर उन्होंने दीक्षा देने का आदेश दिया और आज वही संतमत है कि कितने तो अपने मन-से दीक्षा देने लग गए हैं। कितने को किन्हीं से अधिकार मिला है दीक्ष देने का। लेकिन यह तरीका गलत है।
गुरु महाराज ने जिन लोगों को आदेश दिया था दीक्षा देने का, वे ही सब ठीक हैं। इनके बाद जो कोई दीक्षा देते हैं या देने का आदेश देते हैं, बिल्कुल गलत है, (श्रोताओं की ओर से ‘गुरु महाराज की जय’ ध्वनि)
कटिहार कॉलेज के एक प्रोफेसर महेश्वर बाबू हैं। उन्होंने जिज्ञासा की गुरु महाराज से कि हुजूर! जितने व्यक्तियों को आपने भजन-भेद देने का आदेश दिया है, क्या वे सभी भजन-भेद देने के योग्य हैं? गुरु महाराज बोले-मैंने जिन लोगों को भजन-भेद देने का आदेश दिया है, लोग उनसे भजन-भेद लेंगे। देखिये, जैसे पढ़ाई शुरू होती है, लोअर-प्राइमरी से लेकर मैट्रिक, प्ण्।ण्, ठण्।ण्, डण्।ण् तक की पढ़ाई होती है। प्राइमरी से लेकर डण्।ण् तक जितने शिक्षक होते हैं, सब-के-सब शिक्षक ही होते हैं; लेकिन क्या सबकी योग्यता एक ही होती है? जिस योग्यता के जो होंगे, वे उसक गुरु के पास जाएँगे।
जो कोई सज्जन अन्य दूसरे सत्संगी को भजन-भेद देने का मौखिक या लिखित आदेश देते हैं, वे अनुचित करते हैं और इस आधार पर जो दूसरे को भजन-भेद देते हैं, वे भी अनुचित करते हैं; क्योंकि यह अधिकार सिर्फ उन्हीं को होगा, जो परम पूज्य गुरुदेव के उत्तराधिकारी होंगे।
परम पूज्य गुरु महाराज का आदेश जिनको है, केवल वे भजन-भेद दें। अगर गुरु महाराज का आदेश नहीं है, तब यदि वे भजन-भेद देते हैं, तो गलती करते हैं। जिन सज्जनों को गुरु महाराज ने अन्यों को भजन-भेद देने की आज्ञा दी थी, तो भजन-भेद बताने का आदेश देने के साथ ही गुरु महाराजजी ने यह कहने की कृपा की थी-मैं सभी जगह नहीं जा सकता हूँ। मेरा शरीर कमजोर हो गया है। इसलिए मैं भजन-भेद देने का आदेश देता हूँ कि ये लोग भजन-भेद देंगे। भजन-भेद देने का आदेश है, अगर भजन-भेद देने को कोई व्यापार या रोजगार बना लेंगे, तो सीधे नरक में जाएँगे। जिनको गुरु महाराज ने आदेश दिया है, उनके लिए तो यह बात है और जिन्होंने अपने मन से व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया है, उनकी क्या हालत होगी? उनको तो खुद समझनाा चाहिए कि यदि हम गुरु महाराज के आदेश का पालन करते हैं, तो गुरुमुख नहीं, मनमुख हैं।
संतमत पवित्र मत है, शुद्ध मत है। अगर हम शुद्ध आचरण से रहेंगे। सदाचार का हम पालन करते रहेंगे तो हमारा कल्याण होगा। अगर हम गुरु के आदेश का पालन नहीं करते हैं, मनमाना करते हैं, तो हमारा अकल्याण होगा। अवश्य ही संसार में हम कुछ पैसे कमा लेंगे। हमारी कुछ प्रतिष्ठा हो जाएगी। यह बात दूसरी है। लेकिन परलोक में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। हम सभी सत्संगियों को समझ-बूझकर इस पर चलना चाहिए।

स्थान: सहरसा दिनांक-22-03-1993


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
आज बुधवार है। यदि कहा जाय कि यह विशुद्ध मंगलवार है, तो यह शायद अतिशयोत्तिफ़ नहीं होगी; क्योंकि आज की ही तिथि वैशाख शुक्लाा चतुर्दशी को हमारे ‘मंगल मूरति सतगुरु, मिलवैं सर्वाधार। मंगलमय मंगल करण’ का अवतरण हुआ था। हमारे यहाँ छह ऋतुएँ होती हैं। चैत और वैशाख को वसन्त ऋतु कहते हैं। वसन्त ऋतु को ऋतुराज भी कहते हैं। इसी ऋतुराज में ऋषिराज हमारे गुरु महाराज का अवतार हुआ था, जिनकी 108वीं वर्षगाँठ ठाट के साथ मनाने हेतु हमलोग कुप्पाघाट में यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं। आज उसकी 109वीं जयन्ती है और 108वीं वर्षगाँठ है। आज जयन्ती मनाने के लिए, यशोगान करने के लिए, महिमा-विभूति का वर्णन करने के लिए समवेत हुए हैं। किन्तु मेरे विचार में संसार के समस्त समुद्रों की थाह ले ली जाय, उनके समस्त जल का वजन का कर लिया जाय, पृथ्वी पर के सारे रजकणों की गणना कर ली जाय, गगन मंडल में स्थित सारे ग्रहों और नक्षत्रें को एक साथ एक हाथ में रख लिया जाय-ये सारी असम्भव बातें कदाचित् सम्भव हो जाएँ, तो भी हमारे परम पूज्य गुरु महाराज की महिमा-विभूति का वर्णन कर, यशोगान कर कोई अवसान करे, यह सम्भव नहीं, असम्भव है।
क्या आकाश को और ऊपर उठाया जा सकत है? क्या उनके ऊपर चन्दन का लेप लगाया जा सकता है? क्या कल्पवृक्षों को अन्य वृक्षों की भाँति सुसज्जित कर उसकी सुन्दरता बढ़ायी जा सकती है? क्या सूर्य को देखने-दिखाने के लिए किसी प्रकाश की आवश्यकता हो सकती है? यदि नहीं, तो इसी तरह गुरु महाराज का यशो गान करना सम्भव नहीं, असम्भव है।
हमारे गुरुदेव क्या थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं। जितने बड़े वे सन्त थे, उन्होंने अपने को उतना ही अधिक छिपाकर रखा। लेकिन क्या कोई अग्नि को पोटली बाँधकर रख सकता है? कोई सूर्य को ढक्कन से ढँक सकता है? सूर्य का प्रकाश, स्वतः प्रकाशित होता है। उसी तरह हमारे गुरु महाराज की साधना-तपस्या इतनी उत्कृष्ट थी कि वह स्वयं प्रकाशित थी। प्रवचन के द्वारा उसको प्रकाश में नहीं लाया जा सकता है।
यहाँ भागलपुर में कुछ वर्ष पूर्व रामनुजन् साहब डॉक्टर थे। एक बार नाथनगर में सर्वधर्म-सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें हमारे परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज को भी बुलाया गया था; गुरुदेव पधारे। रामानुजन् साहब को भी बुलाया गया था। गुरु महाराज ह्वीलचेयर पर बैठे हुए थे। रामानुजन् साहब ने उनके श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया। वहाँ एक विशिष्ट सज्जन ने परिचय देते हुए कहा कि ये कलक्टर साहब हैं हुजूर! गुरु महाराज उनकी ओर देखते हैं और कहते हैं-आप जिले भर के मालिक हैं; लेकिन उम्र में मुझसे कम हैं तो मैं जो कुछ कहूँगा, क्या आप मेरी बात सुनेंगे? बड़े सज्जन थे रामानुजन् साहब। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-‘हुजूर, कहा जाय।’ गुरु महाराज कहते हैं-‘कल दोपहर का भोजन मेरे यहाँ कीजिए।’ कलक्टर साहब ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन आए ठीक भोजन के समय। भोजन किया आश्रम में। गुरु महाराज के पास बैठे। गुरु महाराज उनके पास थोड़ी देर बैठे, फिर चले गए। अब गुरु महाराज के प्रभाव से उतनी ही देर में वे इतने प्रभावित हुए कि लोगों के पास जाकर कहते थे कि मेरे कि सिर पर इतना बोझा था, इतनी चिन्ता थी, मैं चिन्ता-ग्रस्त रहता था, लेकिन जैसे ही मैं उनके आश्रम में उनके सान्निध्य में पहुँचा, उनके पास कुछ देर बैठा, न मालूम, वे सभी चिन्ताएँ कहाँ रफू चक्कर हो गई।
तबसे वे एक छोटी-सी छड़ी घुमाते आश्रम आ जाते थे। मेरे पास आकर कहते-गुरु महाराज के दर्शन करूँगा! मैं उन्हें गुरु महाराज के पास लाकर बिठाता था। वे बैठते थे, कुछ देर रहते थे। इस तरह वे आते रहते थे। एक बार उनकी बदली हो गयी-उनका ट्रांसफर (ज्तंदेमित) हो गया। उन्होंने गुरुदेव से कहा, हुजूर मेरी बदली हो गयी है। यहाँ से तो मैं जा रहा हूँ। आपके दर्शन के लिए आ गया। गुरु महाराज कहते हैं-‘आपकी बदली नहीं हुई है।’ रामानुजन साहब कहते हैं कि ट्रांसफर-लेटर (ज्तंदेमित समजजमत) आ गया है। फिर गुरु महारज कहते हैं-‘आपका ट्रांसफर (ज्तंदेमित) नहीं हुआ है।’ अब वे चकित हो गए। जैसे हो रामानुजन् साहब गुरु महाराज के पास से जाते हैं, ऑफिस में देखते हैं कि स्थगन-पत्र आया हुआ है। अब उनके दिल में यह हो गया कि हमारे ऑफिस में स्थगन7पत्र आया हुआ है, इसका मुझे पता नहीं, उनको कैसे पता चल गया? अब तो कलक्टर साहब की श्रद्धा उमड़ पड़ी। जब कुछ वर्षों के बाद सही मेंं ट्रांसफर-पत्र आया, तो वे आये गुरु महाराज के पास और कहने लगे-हुजूर! मेरा तो ट्रांसफर हो गया है, तो गुरु महाराज कहते हैं-‘हाँ, आपका ट्रांसफर हो गया है; अच्छा आप जाइए; लेकिन उन्नति करके आइए।’ वे ट्रांसफर होकर पटना चले गए। कुछ वर्षों तक वहाँ रहे। उसके बाद वे कमिश्नर बनकर भागलपुर आए। जैसे ही भागलपुर आए, वे गुरु महाराज के पास पहुँचे और कहते हैं कि हुजूर का आशीर्वाद मिला था कि उन्नति करके आइए, तो हुजूर! कमिश्नर बनकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।
तो हमारे गुरु महाराज क्या थे? विद्वान की योग्यता विद्वान ही जान सकते हैं, सन्त को सन्त ही पहचान सकते हैं और किन्हीं के पास पहचानने क मीटर नहीं है।
वे क्या थे? कल्पवृक्ष साधारण वृक्ष है क्या? कामधेनु गाय है, तो क्या वह साधारण गाय है? गरुड़ पक्षी है, तो क्या वह साधारण पक्षी है? गंगा नदी है, तो क्या सामान्य नदी है? उसी तरह हमारे गुरुदेव मानव-शरीर में थे, तो क्या सामान्य मानव थे? नर-रूप में वे हरि थे। उनकी जितनी गुण-गाथा गायी जाय, थोड़ी होगीं मैं तो कहूँगा, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनकी गुण-गाथा गाकर शेष नहीं करते, अवशेष ही रह जाती है, तो उनकी बात कोई नर-विशेष कह-कहकर कितना ही कहे, लेकिन अवशेष रह ही जाती है।
श्री सरस्वती विद्यावरदा, प्रजापति सृष्टिकर्ता और श्रीगणेशजी लेखनकर्ता-ये तीनों मिलकर भी यदि वर्णन करना चाहें, तो उनकी ज्ञान-महिमा की इतिश्री नहीं कर सकते। गुरु नानकदवजी ने तो कहा-
गुरु पार ब्रह्म सदा नमसकारउ।
गुरु पारब्रह्म परमेश्वर हैं। हमलोगों को उन्होंने जो उपदेश दिया, उसे यदि हम वास्तव में आचरण में उतारते हैं, तो उनकी सही जयन्ती मनाते हैं। केवल यशगाथा गाकर उनकी जयन्ती नहीं मनायी जा सकती। उनके उपदेश और आदेश के परिवेश में यदि अपने को रख सकें, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष होगा, इसमें संशय की कोई बात नहीं।
क्या उपदेश दिया उन्होंने? एक ईश्वर का ज्ञान उन्होंने दिया। किसी धर्म में आप जाइए, आपको ईश्वर का ज्ञान दिया जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज छोटे थे, तो उनके पिता कल्याण दासजी के मन में हुआ कि बच्चे को पढ़ाना चाहिए, अतः देवनागरी पढ़ानेवाले एक गुरुजी के पास उनको भेजा। गुरुजी ने लिख दिया-1 (एक)। अब दूसरा अंक लिखना ही चाहते थे गुरुजी कि गुरु नानकदेवजी कहते हैं-बस, पहले एक को जान लेने दीजिए, फिर दूसरी बात कहिएगा। (श्रोताओं द्वारा गुरु महाराज की जयध्वनि।)
तो कल्याणदासजी के मन में हुआ कि यह नागरी पढ़ना चाहता है, इसीलिए बहाना करता है। एक मौलवी के पास भेज दिया कि जाओ उर्दू-फारसी पढ़ो। जब ये गए मौलवी के पास, तो मौलवी साहब ने पहला अक्षर लिखा-‘अलिफ’। गुरु नानक साहब पूछते हैं कि यह क्या लिखा आपने? मौलवी कहते हैं अलिफ। गुरु नानकदेवजी पूछते है-‘अलिफ’ का क्या अर्थ होता है?’ मौलवी साहब ने बताया कि अलिफ का अर्थ है पहला। वे ‘बे’ लिखना ही चाहते थे कि गुरु नानकदेवजी कहते हैं-‘बस, पहले ‘पहला’ को जानने दीजिए, फिर दूसरी बात बताएगा।’
वह पहला क्या है? एकोऽहं बहुस्याम्। ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति।’
अर्थात् वह एक ही है और सद्विप्र उसे अनेक नामों से अभिहित करते हैं। यहूदी उसे जेहोवा कहते हैं। ईसाई गॉड या स्वार्गस्थ कहते हैं, मुसलमान अल्लाह कहकर पूजते हैं, बौद्ध बुद्ध, पारसी अहुरमज्द और हिन्दू ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं। लेकिन है सबका अर्थ एक ही। यहाँ भाषान्तर है, शब्दान्तर है, लेकिन तत्त्वान्तर नहीं है। जो उस एक को जान लेते हैं, उन्हें फिर और कुछ जानना बाकी नहीं रह जाता। संत सुन्दरदासजी ने कहा-
एक सही सबके उर अन्तर,
ता प्रभु कूँ कहु क्यों नहीं ध्वावे।
संकट माहिं सहाय करे पुनि,
सो अपनो पति क्यों बिसरावे।।
चार पदारथ और जहाँ लौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै।
सुन्दर छार परे तिनके मुख,
जो हरि को तजि आन कूँ ध्वावै।।
क्या हुआ? गुरु नानकदेवजी महाराज के पंथ में देखिए-एक ॐकार सत्नाम। उसी को जानने को शिक्षा-दीक्षा सभी संतों ने दी है। हमारे गुरुदेव ने भी उसी एक की टेक बतलायी है।
मैं गया हुआ था कान दिखलाने के लिए ऑल इण्डिया इन्स्टिच्यूट, दिल्ली, तो कान के डॉक्टर ने मेरे कान को देखा और पूछा कि बाबा! आप किनकी पूजा करते हैं? मैंने कहा कि एक ईश्वर की पूजा करता हूँ। फिर उन्होंने कहा कि मैं भी पूजा करता हूँ। मैंने पूछा-किनकी पूजा करते हैं? तो उन्होंने कहा-मैं गणेशजी की पूजा करता हूँ, हनुमानजी की पूजा करता हूँ। सात-आठ देवताओं के नाम उन्होंने बता दिए और फिर मुझसे पूछते हैं कि बाबा ठीक करता हूँ न?
मैंने कहा-पूजा करते हैं, सो तो ठीक करते है; लेकिन अनेक की पूजा न करके किसी एक की पूजा कीजिए, तो ठीक रहेगा। उन्होंने कहा-एक की पूजा करूँगा, तो और सब नाराज हो जाएँगे तब? मैंने कहा-देखिए, गंगा के किनारे सैकड़ों नावें लगी हुई हैं और आप गंगा पार करना चाहते हैं। यदि आप नाव से नाव पर, नाव से नाव पर चढ़ते रहेंगे, तो कभी उस पार हो सकेंगे? अरे! एक नाव को पकड़ लीजिए, जो बहुत मजबूत हो, जिसका खेवैया कुशल हो, तो आप गंगा पार हो जाएँगे। उसी तरह सभी देवताओं में से एक को चुन लीजिए, जो सबसे विशेष जान पड़े और किस तरह पकड़िएगा, उसकी कला सीख लीजिए। फिर पार होह जाइएगा। उन्होंने कहा-बाबा! कहते तो आप ठीक है; लेकिन यही मन में होता है कि और सब नाराज हो जाएँगे। डॉक्टर ने दुहराया।
मैंने कहा-देखिए, हमलोगों के यहाँ तैंतीस करोड़ देवता हैं। आप डॉक्टर आदमी है, समय निकालकर मान लिया जाय कि आपने एक करोड़ देवताओं की पूजा कर ली, उधर 32 करोड़ देवता आपसे नाराज ही रह जाएँगे। आजकल वोट का जमाना है, बत्तीस करोड़ वोट एक तरफ और एक करोड़ एक तरफ, तो आप जीतेंगे कि हारेंगे? डॉक्टर साहब ने कहा कि बाबा! आप कहते तो ठीक हैं, लेकिन बहुत दिनों से करते जो चले आए हैं, सो मन नहीं मानता।
मैंने सोचा कि अभी भी इनका मन ठीक नहीं हुआ है। मैंने कहा-अच्छा, एक बात बतलाइए कि जिस समय आपने एम0 बी0 बी0 एस0 पास किया, उस समय क्या-क्या इलाज करते थे? उन्होंने कहा-आँख, नाक, गला, कान-समूचे शरीर का इलाज करते थे।
मैंने पूछा-आजकल? उन्होंने कहा-आजकल केवल कान का इलाज करता हूँ। मैंने कहा-जिस समय समूचे शरीर का इलाज करते थे, उस समय आप बड़े डॉक्टर थे कि केवल कान इलाज करने लगे, तो आज बड़े डॉक्टर है? उन्हों ने कहा-बड़ा डॉक्टर तो आज हूँ। इसपर मैंने कहा-उस तरह जब आप एक को पकड़िएगा, तो बड़े बनकर रहिएगा, नही तो एम0 बी0 बी0 एस0 बनकर रह जाइएगा।
गुरु महाराज ने हमें एक ईश्वर का ज्ञान दिया और बतलाया है कि ईश्वर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं। गुरु नानक साहब ने कहा-
काहे रे वन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई।।
पुहुप मधि जिउ वासु वसतु है मुकर माहि जैसं छाई।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुरु गिआन बताई।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई।।
उस ईश्वर की खोज अपने अन्दर करो। लेकिन समझने की बात यह है कि पुष्प में सुगन्ध तो है, पर सुगन्ध को देखते नहीं हैं। सुगन्ध को ग्रहण नासिका करेगी, आँख नहीं कर सकती है। उसी तरह से संसार को हम देखते हैं; लेकिन संसार में जो परिव्याप्त ब्रह्म है, उसे हम इन आँखों से नहीं देख सकते। इन आँखों से संसार को ही देख सकते हैं।
संसार मे परिव्याप्त ब्रह्म को देखना चाहेंगे, तो सुनिए, सन्त कबीर साहब क्या कहते हैं-
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
आत्मदृष्टि से वह लक्षित होगा, किसी इन्द्रिय के द्वारा नहीं। इसके लिए अपने अन्दर-अन्दर चलने की आवश्यकता है। बाहर जहाँ-कहीं जाएँगे, हम इन्द्रियों के साथ रहेंगे। इन्द्रियों से जो कुछ भी ग्रहण होगा अपने अन्दर में चलने से। अपने अन्दर में कैसे हम चलें, इसकी सद्युक्ति श्रीसद्गुरु बतलाते हैं। इसलिए गुरु नानकदेवजी महाराज ने बतलाया-
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि।।
व्यर्थ का जीवन चला जाएगा, यदि सद्गुरु के चरण नहीं गहे और सद्युक्ति नहीं ली, सदाचारपूर्वक साधना नहीं की। हमारे गुरुदेव ने हमलोगों को बतलाया है कि सरल, सहज, सुगम, परम सुखद यह मार्ग है। इस पर चलें, तो इस लोक में कल्याण होगा और परलोक में भी कल्याण होगा। लोक-परलोक-दोनों के लिए उन्होंने बतला दिया-
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए।।
इन पंच पापों को छोड़ दीजिए, कल्याण होगा। सत्संग कीजिए। सत्संग को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है-आंतर सत्संग और बाह्य सत्संग।
धर्म कथा बाहर सत्संगा। अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा।।
दोनों तरह के सत्संग कीजिए। उन्होंने गिरे हुए को उठाया। दीन-दुखियों को गले लगाना, तो उनकी बान थी। जिस समय जाति-पाँति का भेद-भाव फैला हुआ था, उस समय गुरु महाराज ने जाति-पाँति के भेद-भाव को तोड़कर छोड़ दिया।
उपेदश के लिए प्रतिबंध था कि अमुक को उपदेश दो और अमुक को नहीं, तो संतों ने इस प्रतिबंध को नहीं माना। गुरु नाननदेवजी महाराज ने कहा-
चहु वरना को दे उपदेश। ता पंडित को सदा अदेश।।
और हमारे गुरु महाराज ने उससे और आगे बढ़कर कहा-
जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट पट हटाना चाहिए।।
जाति-पाँति की कोई बात नहीं।
जाति-पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि को होई।।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा-
जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँड़े फोड़िकर।
संतों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ धार छल छोड़िकर।।
उन्होंने स्वयं स्वावलम्बी जीवन बिताया। उन्होंने जो कुछ कहा, करके दिखलाया, केवल बताया ही नहीं। इसके लिए घरवार, परिवार, रोजगार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। संत कबीर साहब ने तो कहा-
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौ कहाँ समावै।।
घर ही में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै।।
और इसका आदर्श हमारे दस गुरुओं ने दिया। गुरु नानक साहब से लेकर गुरु गोविन्द साहब तक जो सद गुरु हुए है, उनमें मात्र एक छोटी ही उम्र में ब्रह्मलीन हो गये थे, बाकी सब-के-सब गृहस्थ थे। गृहस्थी में रहकर ही उन्होंने यह उपदेश दिया। उपदेश ही नहीं, आदर्श दिया कि देखो, गृहस्थ आश्रम में रहकर भी उसी पद को पाया जा सकता है। अतः संसार का भी काम करो और परमार्थ का भी चिन्तन करो।
यही हमारे गुरु महाराज का उपदेश है। साधारण-सी शिक्षा है-मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान की क्रिया करो। इस चारो साधनाओं को करो और पंच पापों से छूटकर रहो।
दोनों तरह का सत्संग करो। स्वावलम्बी जीवन बिताओ। तुम्हारा यह संसार भी कल्याणमय होगा और शरीर छूटने के बाद का भी जीवन कल्याणमय होगा।
गुरु महाराज के उपदेश का सार मैंने थोड़े शब्दों में आपलोगों के सामने रखा। अगर उनके आदेश-उपदेश के अनुकूल चलेंगे, तो गुरु महाराज के कथनानुसार लोक परलोक-दोनों कल्याणमय हों गे।
आज उनकी जयन्ती के उपलक्ष्य में उनके श्रीचरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

स्थान: भागलपुर दिनांक-05-05-1993


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
जब हमें वकील साहब से भेंट होती है, तो मामले, मुकदमे और कचहरी की याद आती है, जब डॉक्टर साहब से भेंट होती है, तब रोग, दवाई, अस्पताल की याद आती है; जब प्रोफेसर साहब से भेंट होती है, तो पाठ्य पुस्तक और महाविद्यालय की याद आती है; जब मौलाना साहब से भेंट होती है, तो नमाज, कुरान और मस्जिद की याद आती है; जब पंडितजी से भेंट होती है, तब पूजा-पाठ और पुराण की बात याद आती है; लेकिन जब साधु-संतों के दर्शन होते हैं, तब कौन-सी बात याद आती है? संत कबीर साहब कहते हैं-
कबीर दर्शन साधु के, साहब आवै याद।
लेखा की याही घड़ी, बाकी के दिन बाद।।
जब साधु-संतों के दर्शन होते हैं, तो प्रभु की याद आती है। प्रभु के दरबार में उसी घड़ी की गिनती है, जिस घड़ी हमें साधु-संतों के दर्शन होते हैं। बाकी के दिन बाद समझिए अर्थात् बर्बाद समझिए। साधु-संतों के दर्शन से प्रभु की याद क्यों आती है? संत कबीर साहब ने कहा है-
परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में लखि लेह।।
जैसे अपने चेहरे को आइने में देखते हैं, उसी तरह संतों की जो देह है, वह परम पुरुष का आइना है।
सत्पुरुष के सम्पर्क में आकर हमारा कल्याण होता है। जिस तरह रेलगाड़ी चलती है और चलते-चलते कभी-कभी इंजन लौह-लीक को छोड़ देता है, नीचे गिर लाता है। सैकड़ों आदमी मिलकर चाहें कि पटरी पर ला दें, संभव नहीं होता; लेकिन एक क्रेन आता है, वह उसको पकड़कर सीधे लौह-लीक पर रख देता है। पुनः पूर्ववत् वह गाड़ी खीचने लग जाता है। उसी तरह पतित को पावन करनेवाला है, तो सत्संग। अपावन को पावन करनेवाला सन्त होते हैं, साधु होते हैं, सत्संग होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
जब द्रवहि दीन दयाल राघव साधु संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक पाप राशि नसाइये।।
जिनके मिले सुख दुख समान अमानतादिक गुण भये।
मद मोह लोभ विषाद क्रोध सुबोध तें सहजे गये।।
जब परम प्रभु परमात्मा की अनुकम्पा होती है, तब साधु-संतों के दर्शन होते हैं। उनके दर्शन से, स्पर्शन से और समागमादिक से पापराशि का नाश होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ‘आदिक’ शब्द के द्वारा कहना चाहते हैं कि वे संत कुछ करने के लिए भी कहेंगे। हम कुछ करेंगे, तब ‘पाप राशि नसाइये’ होगा।
वे क्या करने के लिए बतलाएँगे? वे ध्यान करने के लिए बतलाएँगे। जब हम ध्यान करेंगे, तब पाप का नाश होगा। इसके लिए संत-समागम की अनिवार्य आवश्कता है।
भगवान शंकर पार्वतजी से कहते हैं-
गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कुछ आन।
बिनु हरि कृपा न होय सो, गावहिं वेद पुरान।।
संतों के समागम के समागम और कोई लाभ नहीं है। कागभुशुण्डिजी ने कहा था-
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख कछु नाहीं।।
संतों की संगति, सत्य की संगति ही सत्संग है। सत्य की परिभाषा भगवान श्रीकृष्ण ने इस तरह बतलायी है-
नासतो विद्यते भावो नाभवो विद्यते सतः।।
(गीता 2/16)
जो सत्य है, वह त्रयकाल-अबाधित है या उसका अस्तित्व है। जो असत्य है, उसका अस्तित्व नहीं है।
सत्य था, है और रहेगा। अपरिवर्तनशील पदार्थ सत्य है। गोपीचन्द भरथरी का नाम आपलोगों ने सुना होगा। गोपीचन्द के मन में जब वैराग्य हुआ, तो वे घर छोड़कर चले गए साधु-संतों की संगति में। संतों की खोज में जाते-जाते एक दिन संत सद्गुरु के पास पहुँचते हैं। वे आदेश देते हैं-‘जाओ, अपनी माताजी से भिक्षा माँग लाओ।’ वे जाते हैं, अपनी माताजी से भिक्षा माँगने के लिए। उनकी माताजी कोई समान्य नारी नहीं थीं। वे कहती हैं-‘स्वादिष्ट भोजन करना, मुलायम बिछावन पर सोना और मजबूत गढ़ के अन्दर रहना। जाओ, तुमको यही भिक्षा देती हूँ।’
गोपीचन्द ने कहा-‘माताजी! आपके इन तीनों उपदेशों में से एक भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। राज-पाट, घर-द्वार सब छोड़ चुका हूँ। अब स्वादिष्ट भोजन कहाँ? मुलायम शय्या कहाँ और गढ़ में रहना कहाँ?’ उनकी माताजी ने कहा-‘बेटा! तुमने मेरी शिक्षा का अर्थ समझा नहीं। जब खूब भूख लगे, तब रूख-फीका जो मिल जाएगा, वही स्वादिष्ट भोजन होगा। जब तुमको भूख नहीं लगेगी, तो उत्तम-से-उत्तम भोजन भी फीका लगेगा। इसलिए जब खूब भूख लगे, तब भोजन करना। जब खूब नींद आ जाय, तब जहाँ सोओगे, वही मुलायम शय्या हो जायगा और सत्संग ही गढ़ है, उसमें अपने को रखो।’
सत्संग गढ़ में वास हो भव पाश क्या करे।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
दुनिया क्या है? असत्य है। सत्य क्या है? परम प्रभु परमात्मा। हाथरस के सन्त तुलसी साहब ने कहा है-
सत सुरत समझि सिहार साधौ निरखि नित नैनने रहौ।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली मरम मन मारग गहौ।।
यह सुरत-जीवात्मा सत्य है। इसकी सँभाल करते रहो। इसकी सँभाल क्या है।
सुरत फँसी संसार में ताते पड़िगा दूर।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर।।
सुरत संसार में फँस गयी है, इसका सिमटाव करो। वृत्ति का जो बिखराव हो गया है, उसका एकत्रीकरण करो। सिमटाव करके इसको प्रभु से मिलाओ। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। किसी चीज का जब सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। यह जीव संसार में फँसा हुआ है, इसकी वृत्ति को समेटो-ऊर्ध्वगति करो। बहिर्मुख से अन्तर्मुख करो, अन्धकार से प्रकाश में करो, प्रकाश से शब्द में करो और शब्द से ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाकर मिला दो। यह जीव सत्य है और परम प्रभु परमात्मा भी सत्य है।
इस जीव का जब उस पीव-परमात्मा से मिलन होगा, तभी असली सत्संग होगा।
सत्य का सत्य से संग ही सत्संग है; लेकिन यह बड़ी ऊँची बात है। इतनी ऊँची बात है कि इससे ऊँची बात हो नहीं सकती। जबतक जीव का पीव से मिलन नहीं हो जाता, तबतक जिस सत्पुरुष का जीव उस पीव से मिल चुका है, उसका संग करो। ऐसे सज्जन का संग करो। जो जीव पीव को पा लेता है, फिर उसकी संज्ञा ‘जीव’ की नहीं रह जाती। उसी तरह जो महापुरुष साधना करके अपने को प्रभु परमात्मा में मिला लेते हैं, वे परम प्रभु परमात्मा के स्वरूप ही हो जाते हैं। उनका संग करो। जिस तरह से कोई नदी जाकर समुद्र में मिल जाती है, तो फिर उसकी संज्ञा ‘नदी’ की नहीं रह जाती, ‘समुद्र’ की हो जाती है। उसी तरह जो जीवात्मा परमात्मा से मिल जाता है। जीवात्मा उसकी संज्ञा नहीं रह जाती। जिन्होंने इसकी साधना की है, परमात्मा का साक्षात्कार किया है, वैसे अनुभवी पुरुष का संग करो। गोस्वामीजी ने लिखा है-
सोइ जानहिं जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हई होइ जाई।।
जो प्रभु को पाते हैं, वे प्रभु ही हो जाते हैं। लेकिन ऐसा सत्पुरुष का सत्संग भी सदा सुलभ नहीं है, दुर्लभ है। इनके वचन का संग भी सत्संग कहलाता है। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
सठ सुधरहि सतसंगति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई।।
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसी ही फल दीन।।
केले के वृक्ष में स्वाति की बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह कर्पूर हो जाती है। सीपी में जब स्वाति-बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह मोती हो जाती है। साँप के मुँह में यदि वह बूँद पड़ जाती है, तो वह मणि का रूप धारण करती है। बाँस मे वह बूँद पड़ जाने पर वंशलोचन हो जाती है। हाथी के मुँह में पड़ने से गजमुक्ता हो जाती है। स्वातिबूँद एक ही है; लेकिन स्थान-भेद से गुण-भेद हो जाता है। उसी तरह यह जीव सुजन का सत्संग करेगा, तो सज्जन बन जाएगा और दुर्जन का संग करेगा, तो दुर्जन बन जाएगा।
कोई अपनी हानि नहीं चाहते हैं, सब कोई अपना लाभ-ही-लाभ चाहते हैं। तो हानि कहाँ होती है और लाभ कहाँ होता है, इसको जानिए। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहू वेद विदित सब काहू।।
कुसंग से हानि होती है और सुसंग से लाभ होता है। यह लोक और वेद-सबमें प्रसिद्ध है। उपमा देकर वे समझाते हैं-
गगन चढ़इ रल पवन प्रसंगा। कीचहि मिलइ नीच जल संगा।।
जो धूल सबके पैरों के नीचे रहती है, वही जब पवन का प्रसंग करती है, तो वह गगनगामिनी हो जाती हैं पुनः वही धूल जब जल का संग करती है, तो कीचड़ में मिल जाती है। इसी तरह जो सज्जन का संग करते है-सत्संग करते हैं, तो साधना में चलते-चलते परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाते हैं। इतनी ऊँचाई में चले जाते है कि परमात्म-स्वरूप को प्राप्त करके परमात्मा ही हो जाता है; लेकिन कुसंग प्राप्त करके पता नहीं, पताल-रसातल कहाँ-कहाँ चले जाएँगे, चौरासी लाख योनियों में चले जाएँगे, जिनके दुःखों का कोई ठिकाना नहीं।
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिय पुरान मंजु मसि सोई।।
शुक-सारिका यानी तोता-मैना सुसंग पाकर ‘राम-राम’ जपते हैं और कुसंग पाकर गालियाँ बकते हैं। इसलिए सत्संग की बड़ी बड़ाई है। यह सत्संग क्या है? गोस्वमीजी कहते है-
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग।
भव भंग कारण शरण शोकहारी।।
यह सत्संग श्रीरंग का निज अंग है, जो भवभंग का कारण और शोक का निवारण करनेवाला है। भगवान श्रीराम के लंका जाने के लिए समुद्र में नल और नील पुल बना रहे थे। बन्दर-भालू सब-के-सब सामान ला-लाकर देते थे। नल नील उसको पानी रखते थे। बड़े-बड़े पहाड़ों और बड़े-बड़े वृक्षों को वे पानी पर रखते थे। वे पहाड़ और वृक्ष सब-के-सब पानी पर तैरते रहते थे, डूबते नहीं थे। यह देखकर बन्दर और भालूओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनलोगों ने भगवान श्रीराम से जाकर कहा-‘भगवन! बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को ला-लाकर हमलोग नल-नील को देते हैं। नल-नील उन वृक्षों और पहाड़ों को समुद्र की सतह पर रखते है; किन्तु वे पहाड़ और वृक्ष पानी के नीचे नहीं जाकर ऊपर ही तैरते रहते हैं। क्या करामत है? प्रभु! बड़ा आश्चर्य है। पानी पर वृक्ष-पहाड़, पत्थर सभी स्थिर रह रहे हैं, डूबते नहीं।’ भगवान लीलाधारी हैं। उन्होंने अपनी माया फैलायी और कोतूहलपूर्वक पूछा-क्या जी! बात सच है? बन्दर भालूओं ने कहा-जी हाँ, हमलोग तो देखकर आए हैं। हमलोग तो पहाड़-पत्थर-वृक्ष आदि लाकर देते ही हैं। बिल्कुल सत्य है। भगवान कहते हैं-अच्छा चलो तो, मैं भी देखूँ। चलते हैं भगवान देखने के लिए। वहाँ जाकर देखते हैं कि बन्दर भालूगण बड़े-बड़े वृक्षों, पहाड़ों, पत्थरों को ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे दोनों उन वृक्षों, पहाड़ों को रखते जाते हैं; लेकिन वे डूबते नहीं रहे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम पूछते है-नल-नील! क्या बात है कि इतने वजन के पहाड़-पत्थर आदि पानी पर स्थिर रह रहे हैं? नल-नील ने कहा-भगवन्! यह तो आपकी महिमा है। भगवान श्रीराम ने कहा-जब मेरी महिमा से पत्थर तैर रहे हैं, तो मैं जो पत्थर रखूँगा, वह पानी रहेगा न? उन्होंने कहा-भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर लेकर जल पर रख दिया जाय। किसी बन्दर ने भगवान के हाथ में पत्थर का एक छोटा-सा टूकड़ा रख दिया। पत्थर के उस टुकड़े को भगवान जैसे ही पानी की सतह पर रखते हैं, वैसे ही वह गड़गड़ाकर पानी के नीचे चला जाता है। भगवान ने कहा-‘नल-नील! तुमलोग कहते थे कि मेरी महिमा से ये पत्थर पानी पर स्थिर हैं, तो मेरे हाथ से छोड़ा हुआ पत्थर पताल कैसे चला गया?’ नल-नील ने श्लेष भाषा में उत्तर देते हुए कहा-‘भगवन्! यह पत्थर तो जड़ है। आपके हाथ से यदि चेतन ब्रह्म भी छूट जायँ, तो वे भी किस रसातल को चले जाएँगे, ठिकाना नहीं।’ यह सत्संग क्या है? प्रभु का निज अंग है। सत्संग को जो कोई छोड़ देता है, वह प्रभु के अंग को छोड़ता है। वह किस रसातल को जाएगा, क्या ठिकाना? इसलिए सत्संग की अनिवार्य आवश्यकता है। कबीर साहब कहते हैं-
कबीर संगति साधु की, ज्यों गंधी का वास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुदास।।
आप गंधी की दूकान पर जाइए-इत्र बेचनेवाले की दूकान पर जाइए। वह इत्र का फाहा आपको नहीं भी दे, तो भी आपको उस दूकान से स्वाभाविक ही सुगंधि आएगी। उसी तरह संत-महात्मा के पास जाइए। संत-महात्मा कुछ नहीं भी बोलें, फिर भी उनकी नैसर्गिक आभा आपमें प्रवेश करेगी और आपमें परिवर्तन लाएगी। इंगलैंड से पॉल ब्रन्टन नामक व्यक्ति भारत आए थे संतों की खोज में। खोजने-ढूँढ़ने पर उनकी दृष्टि में भारत में कोई संत नहीं मिले। वे लौटकर चले जा रहे थे। जहाज का टिकट कटाकर जहाज पर बैठ चुके थे। एकाएक क्या प्रेरणा होती है कि वे जहाज से उतर जाते हैं। अरुणाचल में महर्षि रमण के आश्रम में चले जाते हैं। महर्षि रमण अद्भुत संत थे। महर्षिजी ने उनको देखा, लेकिन कुछ बोले नहीं। वे रहते-रहते उस आश्रम में कई महीने रह गए। फिर जो प्रभावित हुए, तो गए अपने देश और उन्हों ने एक पुस्तक लिखी ‘गुप्त भारत की खोज’। उसमें उन्होंने महर्षि रमण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। गुरु-भक्तिन सहजोबाई अपने गुरु के पास गई और प्रणाम करके एक ओर बैठ गईं। सन्त चरणदासजी महाराज ने उनको देखकर अपनी आँखें बन्द कर लीं। हमलोग अपने गुरु महाराज के पास जाएँ और हमलोगों को देखकर वे अपनी आँखें बन्द कर लें, तो हमलोग क्या समझेंगे? यही कि हमारे गुरु महाराज हमसे रुष्ट हैं। हमारी ओर देखना भी नहीं चाहते हैं। लेकिन सहजोबाई क्या कहती हैं, सुनिए-
सहजो गुरु प्रसन्न ह्वै, मूँद लियो दोउ नैन।
फिर मोसूँ ऐसे कह्यो, समुझि लेहु यह सैन।।
‘खग जाने खग ही की भाषा’ की भाँति यह एक इशारा है, संकेत है।
हम साधु-संतों के निकट जायँ, तो एक चित्त होकर उनकी ओर निहारते रहें। वे कुछ बोलें, तो मनोयोगपूर्वक श्रवण कर उसका आचरण करें। हमारा परम कल्याण होगा। साधु-संतों का संग करके हम निवृत्ति-मार्ग पकड़कर परमात्मा तक पहुँच जाएँगे। आवागमन का चक्र छूट जाएगा। संत पलटू साहब ने कहा-
साध महातम बड़ा है जैसी हरि यस होय।।
जैसो हरि यस होय ताहि को गरहन कीजै।
तन मन धन सब वारि चरन पर तेकरे दीजै।।
नाम से उत्पति राम सन्त आनाम समाने।
सबसे बड़ा अनाम नाम की महिमा जाने।।
संत बोलते ब्रह्म चरन कै पिये पखारन।
बड़ा महा परसाद सीत सन्तन कर छाड़न।।
पलटू सन्त न होबते नाम न जानत कोय।
साध महातम बड़ा है जैसी हरि यस होय।।
हम सत्संग करें और सदाचार का पालन करते हुए नित्य नियमित रूप से साधना भी करते रहें। शाश्वत सुख और शान्ति मिलेगी।

स्थानः कोलकाता दिनांक-04-04-1992 ई0


समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
एक सज्जन बंगाल के सुप्रसिद्ध संत रामकृष्ण परमहंस देव जी महाराज के पास आए और हाथ जोड़कर प्रार्थना की-‘देव! मैं गृहस्थ हूँ। मेरे पास समय का अभाव है। इसलिए आप एक ही वाक्य में ऐसा उपदेश दें, जिससे सारे भव-क्लेश निःशेष हो जायँ। रामकृष्ण परमहंस देवजी महाराज ने कहा-‘ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या।’
इसको अच्छी तरह जान लो, कल्याण हो जाएगा। ब्रह्म सत्य है। जिसको हम ब्रह्म कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने उसको ‘राम’ की संज्ञा से अभिहित किया है। उन्होंने कहा है-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहि वेदा।।
ब्रह्म सत्य है। सत्य वह है, जो त्रयकाल-अबाधित हो, अर्थात् पूर्व में जो था, अभी है, आगे भी रहेगा। जो भूत, वर्तमान और भविष्यत्-तीनों कालों में एक-रूप, एकरस रहे, वह है ब्रह्म! आप देखेंगे कि एकरस क्या रहता है? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है-
तुलसी राम सनेह कर, त्याग सकल उपचार।
जैसे घटै न अंक नौ, नौ के लिखे पहाड़।।
कहते हैं, जितने भी पहाड़े हैं, सबको आप लिखिए। उन पहाड़ों में आपको न्यानाधिक अंक मिलेंगे। किन्तु एक नौ का ही पहाड़ा है, जो एकरस रहता है। उसके अतिरिक्त अन्य जितने पहाड़े हैं, सब परिवर्तनशील हैं।
तात्पर्य यह कि जिस नौ का पहाड़ा एकरस रहता है, उसी तरह वह ब्रह्म एकरस रहता है। जिसने इस ब्रह्म को जान लिया, उसका भ्रम समाप्त हो गया। इस ब्रह्म को संतों ने कहीं ‘राम’ शब्द से अभिहित किया है, तो कहीं ‘साईं’ शब्द से। इसी प्रकार कहीं ‘आत्मा’, कहीं ‘परमात्मा’ आदि विविध नामों से सम्बोधित किया है। लेकिन विचार करके देखने पर तो हम उस प्रभु का नाम क्या रख सकते हैं? वे तो अनामी हैं।
जो कोइ चाहै नाम, सो नाम अनाम है।
लिखन-पढ़न में नाहि, निःअक्षर काम है।।
रूप कहीं अनरूप पवन अनरेखते।
अरे हाँ रे पलटू गैब दृष्टि से संत नाम वह देखते।।
गुरु नानकदेवजी महाराज ने तो स्पष्ट कहा-
पिता जनम कि जाते पूत।
अरे! पिता पुत्र का नाम रख सकता है। पुत्र क्या पिता का नाम रख सकता है? हम सब तो परमात्मा की संतान हैं। हम उनका क्या नाम रख सकते हैं?
जिस ईश्वर का नाम नहीं, वह ईश्वर कैसा? हमलोग नित्य पाठ करते हैं-‘जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।’ अब इस ‘अगोचर’ शब्द पर आप गौर कीजिए। हमलोग ईश्वर के लिए नित्य पाठ में प्रयोग करते हैं ‘अगोचर’ शब्द का। अन्य संतों ने भी यही कहा है। अब हम वेद का पन्ना उलटें, वह क्या कहता है? ‘अवाघ् मनस्गोचर।’-ऋग्वेद कहता है। उपनिषद् पढ़िए। शाण्डित्य उपनिषद् में आया है-
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
इस प्रकार ईश्वर के लिए क्या वेद, क्या उपनिषद सब-के-सब सब ‘अगोचर, अगोचर’ शब्द बोल रहे हैं। संत गोरखनाथजी के पास जाइए; उनसे पूछिए, वे क्या कहते हैं-
बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
गगन शिखर महि बालक बोलहि वाका नाँव धरहुगे कैसा।।
ये भी ईश्वर-स्वरूप के लिए कहते हैं ‘अगोचर’। वह बस्ती है या शून्य है, भरा है या खाली है-कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर हम मुँह में ला लेते हैं, वाणी में ला लेते हैं, तो ‘अवाघ् मनस्गोचर’ नहीं कह सकते।
एक यात्री यात्र कर रहा था। रास्ते में जंगल मिल गया। एक साधु बाबा की कुटिया थी। वहाँ पर वह यात्री पहुँचता है और पूछता है कि ‘बाबा! बस्ती कितनी दूर पर है?’ साधु बाबा ने कहा-‘बस, जंगल पार करो, बस्ती मिल जाएगी।’ वह जंगल पार करता है। देखता है कि श्मशान है। लौटकर वह आता है और कहता है कि बाबा! आपने कहा था कि बस्ती जंगल पार करने पर मिलेगी, वहाँ तो बस्ती नहीं है, वहाँ तो श्माशान है। साधु बोला-‘अरे! बस्ती किसको कहते हैं? जिसकी तुम बस्ती कह रहे हो, वास्तव में वह बस्ती नहीं है, वह तो उजाड़ है, वहाँ से लोग रोज मर-मरकर यहाँ बास करते हैं, बस्ती तो यह है। यहाँ से कभी उजड़ते नहीं। जिसको तुम उजाड़ (श्मशान) कहते हो, वही बस्ती है और जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह उजाड़ है।’ वहाँ से लोग रोज मर-मरकर यहाँ बास करते हैं, बस्ती तो यह है। यहाँ से कभी उजड़ते नहीं। जिसको तुम उजाड़ (श्मशान) कहते हो, वही बस्ती है और जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह उजाड़ है।’
जब जग-व्यवहार की ऐसी बात है, तब उस प्रभु के लिए क्या कहा जाय कि वह बस्ती है या शून्य है। प्रभु-स्वरूप के संदर्भ में संत कबीर साहब क्या कहते हैं, सुनिए-
नैना बैन अगोचरी, श्रवणा करनी सार।
बोलनि कै सुख कारनैं, कहिए सिरजनहार।।
ये भी ‘अगोचर’ कहते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज से पूछा जाय, वे क्या कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनी सम्भउ ना तिसु भाव न भरमा।।
साचे सचिहार बिटहु कुरवाणु।
ना तिसु रूप बरनु नहि रेखिआ साचे सबवि निसाणु।।
ना तिसु रूप मात पिता बंधप ना तिसु काम न नारी।
अकुल निरंजन अपर परम्परु सगली जोति तुमारी।।
घट-घट अन्तरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि-घटि जोति सबाई।
बजर कपाट मुकते गुरुमती निरभय ताड़ी लाई।।
जैत उपाइ काल सिरिजन्ता बसगति जुगति सबाई।
सतगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबहु कमाई।।
सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी।।
तो गुरु नानकदेवजी महाराज भी कहते हैं कि परमात्म-स्वरूप अगोचर है।
कतिपय सज्जन आपेक्ष करते हैं कि कबीर साहब और गुरु नानक देवजी महाराज निर्गुणियाँ संत थे। इसीलिए ईश्वर-स्वरूप के लिए उन्होंने ‘अगोचर’ शब्द का व्यवहार किया है। सूरदासजी और तुलसीदासजी महाराज; ये दोनों सगुणियाँ सन्त थे। क्या इन युगल संतों की वाणियां में भी ‘अगोचर’ शब्द आया है? वैचारिक दृष्टि से अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि कोई भी सन्त बिल्कुल निर्गुणियाँ अथवा बिल्कुल सगुणियाँ नहीं होते। आरम्भ से अन्त तक कोई सगुणियाँ वा कोई निर्गुणियाँ होकर रहे नहीं। अवश्य ही आरम्भ में सब-के-सब सगुणियाँ थे और अन्त मे सब-के-सब निर्गुणियाँ हुए। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि ‘कोई कहे कि मैं पैर काटकर दौड़न्न्ँगा, तो वह दौड़ नहीं सकता। कोई कहे कि मैं अपना सिर काटकर जीवित रहूँगा, तो ऐसा करके कोई जीवित रह नहीं सकता।’ शरीर के लिए पैर भी चाहिए और सिर भी।
उसी तरह अध्यात्म-जगत में जीने के लिए स्थूल सगुण साकार से उपासना का आरम्भ होगा और निर्गुण निराकार में अन्त। संतों की साधना-पद्धति यही है।
सगुँन की सेवा करौ, निर्गुन का करू ज्ञान।
निर्गुन सगुँन के परै, तहैं हमारा ध्यान।।
गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
निर्गुन सगुँन त्रिहु गुण ते दूरि।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि।।
अब आप तुलसीदासजी महाराज के वचन में भी सुन लीजिए, ‘अगोचर’ शब्द का व्यवहार उन्होंने किस प्रकार किया है-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह।।
ज्ञातव्य है कि एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। रूप-जो इन आँखों से देखा जाय। सरूप-जो उस रूप के सहित हो और स्वरूप अर्थात् निज रूप। वह निज रूप कैसा है? गोस्वामीजी के ही शब्दों में सुनिए-
अनुराग सो निज रूप जो जग तें बिलच्छन देखिए।
संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिए।।
संत सूरदासजी महाराज के वचन में-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै।।
रूप रेखा गुन जाति जुगति बिनु
निरालम्ब मन चकित धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें,
सूर सगुन लीलापद गावै।।
बड़े स्पष्ट शब्दों में सूरदासजी महाराज कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
कुछ कहने में नहीं बनता है; क्योंकि वह मन-वाणी के लिए अगम और अगोचर है। किस तरह कहने में नहीं आता है? इसके उत्तर में वे उपमा देकर समझाते हैं-
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
कोई गूँगा है, उसको मीठा फल आप खिला दीजिए और पूछिए, स्वाद कैसा लगा? वह क्या बतलाएगा? कुछ नहीं; क्योंकि उसके मुँह में वाणी नहीं है। जिस तरह से उसके मुँह में वाणी नहीं है, उसी तरह ‘ब्रह्म’ वाणी का विषय नहीं है। लेकिन क्या गूँगे को मीठे फल का स्वाद नहीं लगा? स्वाद लगा; लेकिन वह वर्णन नहीं कर सकता। उसी तरह से ब्रह्म की जो प्राप्ति होती है, उसी अनुभूति की अभिव्यक्ति की शक्ति वाणी में नहीं है। संत तुकारामजी महाराज कहते हैं-
गूँगे का गुड़ है भगवान। बाहर भीतर एक समान।।
सूरदासजी महाराज दूसरी जगह कहते हैं-
ज्यों गूँगो गुर खायो, अपुनपौ आपुन ही में पायो।।
ये भी ‘अगोचर’ की ही बात करते हैं। ये तो वैदिक सन्तों की वाणियाँ हैं। आप कहेंगे, किन्हीं जैन, बौद्ध की भी बात होनी चाहिए, तो उनकी बात भी सुनना चाहें, तो सुन लीजिए-एक जैन संत हुए, जिनका नाम टीकारामनाथजी था, वे कहते हैं-
विराजे रोम-रोम में राम, नहि कहुँ दूजो धाम।
अगम अपार अनादि अगोचर, सज्जन मनोभिराम।।
ये भी ‘अगोचर’ कहते हैं। यदि पूछा जाय कि वे अगम, अगोचर ईश्वर कितने? उत्तर होगा-एक। ऋग्वेद कहता है-एकं सद्विप्राः वहुधा बदन्ति। वे एक हैं, सभी उन्हें अनेक नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उनको गॉड कहते हैं, मुसलमान उनको अल्लाह कहते हैं, पारसी उनको अहुरमज्द कहते हैं, चीनी उनको तितीन कहते हैं, वैदिक धर्मावलम्बी उन्हीं को ब्रह्म-परमात्मा कहते हैं। कोई उनको निर्गुण कहते हैं; लेकिन वे न केवल सगुण हैं, न केवल निर्गुण; बल्कि सगुण-निर्गुण में रहकर भी वे उनसे परे हैं।
कोई माता के रूप में उनको पूजते हैं, कोई उनको पिता के रूप में पूजते हैं, लेकिन न वे स्त्री हैं, न पुरुष ही; परन्तु वे जगत के माता-पिता अवश्य हैं। संत कबीर साहब कहते हैं, ईश्वर कितने हैं?
मेरा साहब एक तू, दूजा कहा न जाय।
दूजा साहब जौं कहौं, साहब खड़ा रिसाय।।
गुरु नानकदेवजी महाराज बतलाते हैं-
एकोएक सो अपर परंपर परखि खजाने पाइदा।
ये भी कहते हैं-ईश्वर एक हैं।
और संत सुन्दरदासजी महाराज की वाणी सुनिए, वे क्या कहते हैं-
एक सही सबके उर अंतर, ता प्रभु कूँ कहु क्यूँ नहीं ध्यावै।
संकट माहि सहाय करै पुनि, सो अपनी पति क्यूँ बिसरावै।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं, आठहु सिद्धि नवो निधि पावै।
सुन्दर छार पड़े तिनके मुख, जो हरि कूँ तजि आन कूँ ध्यावै।।
बादशाह अकबर के दरबार में बहुत-से कवि रहते थे। वे जितने भी कवि थे, सब प्रतिदिन एक-एक कविता बादशाह अकबर को सुनाया करते थे। उनमें एक कवि का नाम था श्रीपति। उनकी जितनी कविताएँ हुआ करती थीं, ईश्वरपरक ही होती थीं। अन्य जितने कवि थे, सब बादशाह की प्रसन्नता के लिए उनकी स्तुति-प्रार्थनापरक कविता बनाया करते थे। सभी दरबारी कवियों की नजर में श्रीपति चढ़ गए कि ये कभी बादशाह की प्रसंशा में कोई कविता नहीं बनाते हैं, क्यो न बादशाह से मिलकर यह कहवा दिया कि आगामी कल की कविता जो बनेगी, उस कविता में यह पंक्ति अवश्य रहना चाहिए-‘करो सब आस अकब्बर की’
दरबारी कवियों ने मन में सोचा कि अगर श्रीपति कवि अपनी कविता में यह पंक्ति नहीं देते हैं, तो वे बादशाह की नजर से गिरेंगे और अगर यह पंक्ति रखते हैं, तो हमलोग उनको उपालम्भ देंगे कि आज ईश्वरपरक आपकी टेक कहाँ गयी? क्या बात हुई? दूसरे दिन सबने कविता बनाई और सबने अपनी-अपनी कविता बादशाह को सुना दी। अब जब श्रीपति की बारी आयी तो सब लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि ये क्या सुनाते है, देखें। श्रीपति ने अपनी कविता निम्न प्रकार सुनाई-
एकहि छाड़ि जो दूजो भजै, सो जरै रसना अस लब्बर की।
अबकी दुनिया गुनियाँ जो बनी, सब बाँधत फैंट अडंब्बर की।।
कवि श्रीपति आसरो रामहि को, हम फैट गही बड़ जब्बर की।
जिनको उन एक की टैक नहीं, सो करो सब आस अकब्बर की।।
वह एक क्या है? परम प्रभु परमात्मा। उन्हीं एक की टेक धारण करने के लिए संतजन कहते हैं। उस एक को जानो। जो उस एक को जान लेता है, उसका कल्याण हो जाता है; कभी अकल्याण नहीं होता। ऋग्वेद कहता है-हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, त्वचा आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि वह इन्द्रियातीत है। जो कोई उनपर विश्वास लाते हैं, उनकी सहायता वे करते हैं।
एक राजा था। उसका मंत्री ईश्वर-विश्वासी था। जो कुछ भी घटना होती थी, वह यही कहता था कि ईश्वर जो कुछ करते है, हमारी भलाई के लिए करते हैं। एक दिन वह राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ संयोगवश अपने ही हथियार से राजा की अंगुलि कट गई। मंत्री ने कहा, ‘ईश्वर जो कुछ करते हैं, अच्छे के लिए करते हैं। भविष्य में आपका कल्याण होनेवाला है, इसीलिए अंगुलि कटी है।’ राजा के मन में बड़ा दुःख हुआ कि मेरी अंगुलि कटी है और यह कहता है, जो कुछ ईश्वर करते हैं, अच्छे के लिए करते हैं। राजा ने उक्त मंत्री को नौकरी से बर्खास्त कर दिया और कहा-‘तुम्हारी अब आवश्यकता नहीं है। तुम अपने घर चले जाओ।’ मंत्री घर चला गया। राजा के घाव की मरहम-पट्टी हुई। घाव छूट गया। कुछ दिनों के बाद राजा पुनः शिकार खेलने के लिए जंगल गया। एक शिकार के पीछे घोड़ा दौड़ाते-दौड़ाते वह घनघोर जंगल में पहुँच गया। वहाँ चारो तरफ से डकैतों ने उसे घेर लिया और उसके जितने वस्त्र और अलंकार थे सब उतार लिए। डकैतों ने काली की महिमा गाना शुरु किया और कहा, ‘देखो! काली माई की कितनी महिमा है। रात में हमलोगों ने मनौती की थी कि मन के अनुकूल धन मिल जाय, तो एक नर बलि देंगे, तो हमलोगों को मनोऽनुकूल धन भी मिल गया और देखो, बलिदान के लिए नर भी कितना सुन्दर आ गया।’ पश्चात् राजा को नहलाया गया, नया वस्त्र पहनाया गया, गले में फूल की माला डाली गयी और बलिदान के लिए काली के सामने ले जाया गया। अब उनपर तलवार चलने ही वाली थी कि एक डकैत की नजर पड़ गई उनकी कटी अंगुलि पर। उसने कहा, ‘रुक जाओ, तलवार मत चलाओ।’ डकैतों ने पूछा-‘क्या बात है?’ उसने कहा-‘भाई! यह तो अंग-भंग है। अंग-भंग का बलिदान नहीं होता। हमारे यहाँ जो कोई बकरा चढ़ाते हैं; कितने आदमी तो गला काटते हैं, कितने आदमी कान काटकर छोड़ देते हैं। जिस बकरे का कान कटा हुआ रहता है, फिर वह बकरा दुबारा बलिदान पर नहीं चढ़ता है; इसकी तो अंगुलि पहले ही कट गई है, छोड़ दो इसको। डकैतों ने राजा को छोड़ दिया। राजा अपना कपड़ा पहनकर अपने घर की ओर भागता है जान लेकर। राजा मन में सोचता है-मंत्री बड़ा बुद्धिमान था, क्यों न उसको बुला लिया जाय। खबर देकर मंत्री को बुला लिया जाता है। मंत्री आ जाता है। राजा ने मंत्री से जंगल की अपनी बीती घटना बतायी। मंत्री ने कहा-राजन्! मैंने तो पहले ही आपसे कहा था कि ईश्वर जो कुछ करते हैं, अच्छे के लिए करते हैं; लेकिन आपको मेरी बात अच्छी नहीं लगी। राजा ने पूछा-अच्छा, मेरे लिए तो भगवान ने बहुत अच्छा किया कि मेरी अंगुलि कट गई तो मेरा गला बच गया। लेकिन तुम जो इतने दिनों तक घर में बैठे रहे, तुमको पैसे नहीं मिले, इससे तुम्हारा क्या लाभ हुआ? मंत्री ने कहा-राजन्! आप जब शिकार खेलने जाते थे, तो मुझे साथ में ले जाया करते थे। आप उस दिन भी मुझे साथ ले जाते, डकैतों से हम सब कोई घिर जाते। अंगुलि तो आपकी कटी थी, मेरी नहीं कटी थी; इसलिए गला तो मेरा ही कट जाता आपके बदले में। राजन्! जान है तो जहान है। इतने दिनों के पैसे ही न नहीं मिले। जीवन है, तो रुपये कमा लेंगे। राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने कहा कि वास्तव में तुम सही कह रहे हो। तुम बड़े ईश्वर-विश्वासी और संतोषी हो। मंत्री जितने दिनों घर में बैठे थे, राजा ने उतने दिनों के सभी पैसे दे दिए। मंत्री ने कहा-राजन्! देखिए, काम तो कुछ किया नहीं और दाम पूरा मिल गया।
तो वे ईश्वर हमारी रक्षा करते हैं। उन ईश्वर को हम स्वरूपतः जान लें, तो हमारा परम कल्याण हो जाएगा। अब ईश्वर को हम कैसे जानेंगे, कैसे पहचानेंगे, अब कल के सत्संग में आपलोंग सुनेंगे।
बोलिए प्रेम से श्रीसद्गुरु महाराज की जय!

स्थान: चित्रकूट दिनांक-16-02-1992




समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं बहनो!
श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आया है। जब भगवान श्रीराम रावण की बाँहों और सिरों को काट देते थे, तो वे पुनः हो जाते थे। इस तरह बाँहों और सिरों को कटकर धरती पर गिरते और पुनः पूर्ववत् होते देखकर रावण का अहंकार बढ़ गया और वह बढ़-चढ़कर भगवान श्रीराम से बोलने लगा। तब भगवान श्रीराम ने कहा-
जनि जल्पना करि सुजस नासहि, नीति सुनहि करहि क्षमा।
संसार महँ पूरुष त्रिविध, पाटल रसाल पनस समा।।
एक सुमन प्रद एक सुमन फल, एक फलही केवल लागही।
एक कहहि अपर, एक करहि अपर, एक करहि कहत न जागही।।
भगवान श्रीराम कहते हैं-बकवास करके तुम अपने सुयश का नाश मत करो। जो तुमको करना है, वह करके दिखलओ। संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। एक गुलाब के पौधे के समान, दूसरा आम वृक्ष के समान और तीसरा कटहल पेड़ के समान। मतलब यह कि गुलाब के पौधे में केवल फूल होते है, फल नहीं होता। आम के वृक्ष में फूल होता है और फल भी होता है। कटहल के पेड़ में केवल फल होता है, फूल नहीं। भगवान श्रीराम कहते हैं कि इसी तरह आदमी भी तीन प्रकार के होते हैं। कुछ लोग केवल बोलनेवले होते हैं, करनेवाले नहीं, जैसे गुलाब में केवल फूल-ही-फूल लगता है, फल नहीं। दूसरे होते हैं आम वृक्ष के समान। उसमें फूल और फल दोनों होते हैं। यानी कुछ लोग ऐसे होते हैं कि कहते भी है और करते भी हैं। तीसरे वे होते हैं, जो कटहल वृक्ष के समान होते हैं। जैसे फल-ही-फल होता हैं, फूल नहीं होता है; उसी तरह तीसरे प्रकार के लोग बोलते है, तो कुछ नहीं; लेकिन जो करना चहिए, वह करके दिखला देते हैं। ये तीन तरह के लोग होते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं कि बकबक क्यों करते हो? मुझे मारना चाहते हो, तो मारकर दिखला दो। केवल बोलते क्यों हो? कबीर साहब के वचन में आया है-
कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लवार।
अखिर धक्का खाएगा, साहब के दरबार।।
एक संत ने कहा है-संसार में चार तरह के लोग होते हैं। एक तो नारियल के समान, दूसरे होते हैं बेर के समान, तीसरे होते हैं शिला के समान और चौथे होते हैं अंगूर के समान। नारियल का ऊपरी भाग होता है कड़ा और भीतर का भाग होता है बड़ा मुलायम और बहुत साफ, उसके साथ जल भी रहता है। उसी तरह कुछ लोगों की बाहर की बोली तो कड़ी होती है; लेकिन उनका भीतर बड़ा साफ होता है और शीतलता के लिए होता है। दूसरे लोग बेर के समान होते हैं। बेर के ऊपरी भाग में कुछ गुदा रहता है और भीतर बड़ी कड़ी उसकी गुठली रहती है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बाहर से तो चिकनी-चुपड़ी बात बोलते है; लेकिन भीतर उसका बड़ा कठोर होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
बोलहि मधुर वचन जिमि मोरा।
खाहि महा अहि हृदय कठोरा।।
मयूर की बोली बड़ी मीठी होती है, वह देखने में बड़ा सुन्दर होता है; लेकिन बड़े-बड़े सर्पों को वह निगल जाता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मधुर-भाषी होते हैं; किन्तु बड़े-बड़े भयानक कर्मों को करने में उनकी हिचक नहीं होती।
एक दीवार एक गिरगिट बैठा हुआ है। उसी दीवाल पर एक मक्खी बैठी हुई है। गिरगिट तेजी से दौड़कर जाता है और लपकर उस मक्खी को पकड़ लेता है और निगलकर समाप्त कर देता है। उसी दीवाल पर एक तरफ मकड़ी जाल बनाये रहती है और जाल के एक बगल में वह बैठी रहती है। कई मक्खी उड़ते-उड़ते आती है और उस जाल में फँस जाती है। वह मकड़ी बड़े प्रेम से जाती है और उनको निगल जाती है। मतलब यह कि जो सीधे आघात करता है, वह गिरगिट के समान है। दूसरा वह है, जो अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें कहकर लोगों को फँसाकर रखता है; लेकिन वास्तव में दोनों-के-दोनों डकैत हैं। तीसरी तरह के वे लोग होते हैं, जो शिला के समान होते हैं। शिला कहते है-पत्थर को। वह बाहर-भीतर एक समान होता हैं। बाहर वचन बोलने में कड़ा और भीतर भी कठोर। चौथे होते हैं अंगूर के समान। ऊपर भी मुलायम, भीतर भी मुलायम और सुस्वादु भी होता है। उसी तरह कितने लोग होते हैं, जो बोलते भी मधुर हैं, उनका व्यवहार भी मधुर होता है और वे रहते भी मुलायम हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
‘विषयी साधक सिद्ध सयाने। त्रिविध जीव जग बेद बखाने।।’
एक विषयी होते हैं, दूसरे साधक होते हैं, और तीसरे सिद्ध होते हैं। इन तीनों तीन प्रकृतियाँ होती हैं।
विषयी की उपमा दी गयी है गुबरैला मक्खी से, साधक की उपमा दी गई है घरों की मक्खी से और सिद्ध की उपमा दी गई है मधुमक्खी से। जैसे इधर तीन तरह के नर हैं, उसी तरह उधर तीन तरह की मक्खियाँ हैं। लेकिन जैसे तीनों मक्खियों में भिन्नता है, उसी तरह तीनों नरो में भी भिन्नता है। विषयी लोग कैसे होते हैं? गुबरैला मक्खी के समान। गुबरैला मक्खी क्या करती है? लोग जो मैदान में शौच जाते हैं, वहाँ वह मक्खी पाखाने की गोलियाँ बनाती है और उनको घुमाती-फिरती रहती है। उसके निकट ही अच्छे-अच्छे फूलों की सुगंधों से सुगन्धित फुलबाड़ी हो, लेकिन वह गुबरैला मक्खी कभी उस फुलबाड़ी में नहीं जाएगी। उसी तरह जो विषयी लोग होते हैं, दुनियादारी में मस्त रहते हैं। हाय पैसा, हाय बेटा, हाय काम, हाय धाम! उसी हाय-हाय में लगे रहते हैं। उनके आस-पास ही सत्संग हो, सत्कथा होती हो; हरिकथा-भगवत्-चर्चा होती हो, साधु-महात्मा आए हों, तो वे वहाँ नहीं जाएँगे।
दूसरे होते हैं साधक। उनकी उपमा दी गयी है घरों की मक्खियों से। घरों की मक्खियाँ करती हैं? घरों में जब मिठाइयाँ बनती हैं, तो उन मिठाइयों पर वे जाकर बैठती हैं और उसी घर में यदि कोई नन्ना-मुन्ना पाखाना कर देता हैं, तो वे वहाँ जाकर भी बैठती हैं। मिठाइयों से उड़ाइए तो पा खाने पर और पाखाने से उड़ा दीजिए तो मिठाइयों पर। उसी तरह साधक कभी तो भगवान का नाम लेता है और कभी दुनियादारी भी करता है यानी कभी काम में, कभी नाम में। और जो सिद्ध लोग होते हैं, वे तो मधुमक्खी के समान होते हैं, जिनका अनुराग केवल परम प्रभु परमात्मा के पद-पप्रपराग से रहता है। ये तीन तरह के लोग होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि चार तरह के लोग और होते हैं-
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनध उदारा।।
चहु चतुरन कहँ नाम अधारा।
ज्ञानी प्रभुहिँ विशेष पियारा।।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी चार प्रकार के भक्त बतलाए गए हैं; यथा-आर्त्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। एक आर्त्त यानी दुःखी है। वह अपने दुःख-निवारणार्थ प्रभु के नाम का जप करता है।
जपहि नाम जन आरत भारी।
मिटहि कुसंकट होहि सुखारी।।
वे अपने दुःखों से, कष्टों से छुटकारा पाने के लिए प्रभु को भजते हैं, पुकारते हैं; जैसे द्रोपदी कौरवों की सभी में अपनी लज्जा बचाने के लिए भगवान को पुकारने लगी थी। भगवान ने द्रोपदी की आर्त्त पुकार सुनकर उसकी लज्जा बचा ली।
दूसरे प्रकार के भक्त होते है अर्थार्थी। उनको धन की कमी है, इसके लिए वे भगवान का भजन करते हैं कि हे भगवन! हमें धन दो। भगवान श्रीकृष्ण का महाकाव्य है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ अर्थात् जो मेरा भक्त होता है, उसका योग क्षेम मैं करता हूँ। जो आवश्यकता मेरे भक्त को होती है, वह देता हूँ और देकर उसकी रक्षा भी करता हूँ। इस सन्दर्भ में एक बड़ी अच्छी कथा है-सुदामाजी बड़े गरीब थे। भगवान श्रीकृष्ण और सुदामाजी एक ही साथ बचपन में पढ़ते थे। बड़े होने पर दोनों दो जगह चले गए। भगवान श्रीकृष्ण अपना राज्य-सिहासन सँभालने लगे और ये बेचारे गरीब ब्राह्मण अपने घर आए, विवाह किया; लेकिन अर्थाभाव था। अपने बचपन के बाल-मित्र की चर्चा वे कभी-कभी अपनी पत्नी के निकट किया करते थे, तो पत्नी कहा करती थी कि आप कहते हैं कि आपके मित्र बड़े धनी हैं, राजा हैं। आप जाइए उनके पास और कुछ ले आइए। लेकिन ये जाना चाहते नहीं थे। मित्रता की बात कुछ और है और माँग-चाँग की बात कुछ और होती है। रहीम कवि ने कहा है-
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहि माँगन जायँ।
कबीर साहब ने तो कहा-
मर जाऊँ माँगू नहीं, अपने तन के काज।
तथा-
माँगन से मरना भला, यह सद्गुरु की सीख।
माँगना अच्छा नहीं है। पुनः रहीम कवि कहते हैं-
रहिमन याचकता गहे, बड़ो छोट ह्वै जात।
नारायणहू को भयो, बावन अंगुल गात।।
जो कोई कहीं माँगने जाता है, वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, माँग करने पर छोटा हो जाता है।
भगवान विष्णु गए थे राजा बलि के यहाँ माँगने के लिए, तो वहाँ वे बावन अंगुल के बन गए थे। इसलिए माँगना ठी नहीं हैं यह जानकर सुदामाजी श्रीकृष्ण से कुछ माँगने के लिए जाते नहीं थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन भला।।
देनेवाले का हाथ ऊपर होता है और लेनेवाले का हाथ नीचे। तुलसीदासजी कहते है कि कर के ऊपर कर करो। कर के नीचे कर नहीं करो। कर के नीचे कर करने से यानी माँगने से मर जाना अच्छा है। इसलिए वे भगवान के पास माँगने के लिए जाते नहीं थे; लेकिन धर्मपत्नी जब बहुत प्रेरणा देने लगी, तो वे बोले-अच्छा, जाऊँगा मित्र के यहाँ। तो खाली हाथ कैसे जाएँगे! उसकी धर्मपत्नी ने थोड़े-सा तण्डुल एक पोटली में बाँध दिया। वे उस पोटली को काँख के नीचे दबाकर अपने मित्र श्रीकृष्ण से मिलने के लिए चले। चलते-चलते जैसे उनके दरवाजे पर वे पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि फाटक पर पहरेदार पहरे पर खड़ा है। इनके पैरों में जूते नहीं, तन पर फटा हुआ कपड़ा है। इनका दुर्बला गात देखकर पहरेदार ने इनका पता पूछा। अपना नाम हुए सुदामाजी ने कहा-श्रीकृष्ण मेरे मित्र हैं। मैं उनसे मिलने आया हूँ। पहरेदार ने भगवान श्रीकृष्ण से जाकर कहा कि एक आदमी फाटक पर खड़ा है। उसके तन पर फटा हुआ चिथड़ा है, पैर में जूते नहीं और न माथे पर पगड़ी है। लेकिन वह अपने को आपका सखाक बतला रहा है। वे आपसे मिलने के लिए आए हैं। भगवान के हृदय में दया उमड़ आयी। अपने बचपन के मित्र की याद आ गयी। दौड़े हुए आते हैं और सुदामाजी के गले से लिपट जाते हैं। उनको अपने हृदय से लगा लेते है और आदर से अपने साथ अन्तःपुर ले जाते हैं। सिहासन पर बिठाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी रुकमणीजी उनका पद-प्रक्षालन करती हैं। आदर-सत्कार कर कुशल-समाचार पूछते हैं और कहते है कि मित्र! बहुत दिनों के बाद आए हो। कहो, क्या सन्देश लाए हो? बेचारे को काँख के नीचे से पोटली निकालने में बड़ी लज्जा लग रही थी। सोचने लगे-थोड़ा-सा तण्डुल इतने विभूतिवान के सामने कैसे रखूँ! संकोच के मारे वे निकाल नहीं रहे थे। लेकिन भगवान तो अन्तर्यामी थे। उनकी काँख के नीचे की पोटली खींचकर प्रेम से तण्डुल खाने लगे। एक बार, दूसरी बार और जैसे ही तीसरी बार वे अपने मुँह तण्डुल डालते हैं, तो रुकमणीजी उनके हाथ पकड़ लेती हैं और कहती हैं कि बहुत दे चुके, हो गया, इनको अब और आप क्या देना चाहते हैं? श्रीसुदामा कई दिनों तक वहाँ रहे। भगवान ने बड़े आदर-सत्कार के साथ उनको रखा। जब वे चलने लगे, तो भगवान ने बाहर दिखावे में कुछ दिया नहीं। रास्ते में श्रीसुदामाजी सोचते हैं कि मेरा मन नहीं था, तब भी मेरी पत्नी ने मुझे अपने मित्र के पास माँगने के लिए भेजा। अच्छा हुआ कि उन्होंने कुछ दिया नहीं। लेकिन सुदामाजी जब अपने घर पहुँचे हैं, तो देखते हैं कि झोपड़ी की जगह अट्टालिका है। अब वे दुःखित हो गये कि हमारा घर उजाड़कर कौन धनी आदमी यहाँ आकर बस गया है। जब सुदामाजी की पत्नी ने अपने पति को देखा, तो दौड़कर उनके निकट आयी और आरती उतारने लगी। सुन्दर वस्त्रलंकार से सजी-धजी रहने के कारण पहले पत्नी को सुदामाजी पहचान नहीं सके, बोले-अरे! कौन मेरे पास आ गयी? जब गौर करके देखते हैं, तो पाते हैं कि वह उनकी ही पत्नी है। बड़े प्रसन्न होते हैं। भगवान ने सुदामाजी के साथ में साथ इसलिए नहीं दिया कि रास्ते में चोर-डकैत छीन लेंगे। इसलिए वहाँ धन नहीं देकर घर ही में सब कुछ दे दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने इस वाक्य-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ को चरितार्थ कर दिखा दिया।
तीसरे प्रकार के भक्त होते हैं-जिज्ञासु। वे खोज कर रहे हैं कि प्रभु कहा हैं-परमात्मा कहाँ है, कैसे मिलेंगे? इसके लिए क्या करना होगा? किनसे सद्युक्ति मिलेगी? किस रास्ते से जाना होगा? आत्म-स्वरूप क्या है? परमात्म-स्वरूप क्या है? उनको कौन प्राप्त करेगा? आदि जिज्ञासाएँ हैं। जिज्ञासु के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द-ब्रह्मातिवर्तते।’
चौथे प्रकार के ज्ञानी भक्त होते हैं। वे ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ जानते हैं। वे सबमें एक-ही-एक आत्मा को देखते हैं। इन चार प्रकार के भक्तों को नाम का आधार होता है। गोस्वामीजी ने लिखा है-चहु चतुरन कहँ नाम अधारा।
प्रभु के नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक, दोनों तरहे के होते हैं। इन दोनों प्रकार के नामों का आधार इन चारों भक्तों को होता है। ये चारो भक्त पुण्यवान होते हैं; अच्छे कर्मों को करनेवाले होते हैं। अनध-निष्पाप होते हैं और उदार होते हैं।
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृत चारिउ अनध उदारा।।
उदार किनको कहते हैं? जो अपने लिए जिस प्रकार की सुख-सुविधा की व्यवस्था करते हैं, उसी तरह दूसरों के लिए भी करते हैं, वे उदार हैं। इससे भी अधिक दाता होते हैं। उनको स्वयं की परवाह नहीं रहती, दूसरों की ओर ही अधिक ध्यान देते है, वे दाता कहलाते हैं। हमलोगों के यहाँ दाता कर्ण की बड़ी चर्चा है। कर्ण बड़े दानी थे। अभी मैं हरियाणा प्रान्त के करणाल शहर में सत्संग-सेवार्थ गया हुआ था। वहाँ हरियाणा, दिल्ली और चण्डीगढ़ का संयुक्त सत्संग था। दाता कर्ण के नाम पर ही करणाल पड़ा है। वहाँ एक बड़ा विशाल पार्क है। वहाँ एक चौराहा है, जिसका नाम कर्ण चौराहा रखा गया है। वहाँ एक चबूतरा है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की, अर्जुन की और कण की मूर्ति है। भगवान श्रीकृष्ण की तो एक चतुर्भुजी मूर्ति है और एक ब्राह्मण-वेश की भी मूर्ति है। उसकी कथा इस तरह है। कर्ण पाण्डवों के ही भाई थे; किन्तु पाण्डवों को यह बात मालूम नहीं थी। इसी प्रकार कर्ण को ज्ञात नहीं था कि पाँचों भाई पाण्डव मेरे ही भाई हैं। इसलिए महाभारत के मैदान में ये दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध होकर युद्ध करते थे। कुन्ती ने कर्ण के पास जाकर जब परिचय दिया कि वे पाँचों भाई भी तुम्हारे ही भाई हैं, तुक उन्हीं के भाई हो, तो कर्ण ने कहा- दुनिया के लोग जानते हैं कि कुन्ती के पाँच पुत्र हैं; लेकिन छठा पुत्र कर्ण है, इसको कोई नहीं जानता हैं। तुम कहती हो कि मैं भी तुम्हारा पुत्र हूँ, तो मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे पाँच पुत्र के पाँच पुत्र रहेंगे। मेरा युद्ध अर्जुन के साथ होगा। अर्जुन को मैं मार दूँगा, तो भी मेरे सहित तुम्हारे पाँच पुत्र रहेंगे और यदि अर्जुन मुझे कार देगा, तो भी तुम्हारे पाँच रहेंगे। मार डालने का मौका आने पर भी मैं तुम्हारे अन्य चार पुत्रें को मारूँगा नहीं, छोड़ दूँगा। कण ने मात्र कहा ही नहीं, अपने वचन का पालन भी किया। कर्ण ने कई बार पकड़-पकड़कर इन चारों भाइयों को छोड़ दिया। अर्जुन के साथ घमासान युद्ध हुआ। अर्जुन ने उनपर प्रहार किया। अर्जुन के वाण से वे गिर गए। अभी उनके प्राण निकले नहीं थे। अब उनकी देह मृत्यु-शय्या पर पड़ी हुई थी। अब पाण्डवों के दल में खुशियाँ मनायी जा रही थीं कि प्रबल शत्रु मारा गया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण बोलते थे-आह! आज संसार से दानी उठ गया। अपने शत्रु की प्रशंसा भगवान श्रीकृष्ण के मुँह से सुनकर अर्जुन के मन में बड़ा कष्ट हुआ। वह कहता है। भगवान श्रीकृष्ण से कि यह आप क्या कह रहे हैं! हमलोग खुशियाँ मना रहे हैं और आप आह भर रहे हैं! शत्रु के निधन से आपको प्रसन्नता होनी चाहिए! भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! वह बड़ा दानी थी। उतना बड़ा दानी कोई नहीं। अर्जुन ने कहाँ-क्या हमारे भाई युधिष्ठिर महाराज और हमलोग दानी नहीं हैं? भगवान ने कहा-तुम्हारे भाइयों की और तुम्हारी दानवीरता में तथा कर्ण की दानवीरता में बहुत अंतर है। देखो, अभी कर्ण मरा नहीं है, जिन्दा है; लेकिन मृत्यु-शय्या पर है। अभी भी मैं उसकी दानवीरता तुम्हे दिखला सकता हूँ। चलो तुम मेरे साथ। रात्रि का समय था। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन-दोनों साथ-साथ चले युद्ध-मैदान की ओर। वह युद्ध का मैदान क्या था? श्मशान था। लाशें बिछी थीं। कुत्तों और गीदड़ों का साम्राज्य था। भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का रूप धारण कर लेते हैं और अर्जुन से कहते हैं, तुम पीछे रहो। देखो कि क्या होता है। भगवान श्रीकृष्ण दूर से कहते हैं-कहाँ हो दाता कर्ण! दाता कर्ण! अपना नाम सुनकर कर्ण के मन में सत्साहस का संचार होता है; लेकिन वह चलने में असमर्थ है। कहते हैं-कौन हो भाई? मेरे नजदीक आओ। मेरा तो अन्तिम समय है। भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण-वेश में नजदीक जाते हैं। ब्राह्मण को देखकर कर्ण प्रणाम करते हैं और पूछते हैं-ब्राह्मण देवता! आप कहाँ आये हैं? ब्राह्मण-वेशधारी भगवान कहते हैं-सुना है कि तुम बड़े दानी हो। मुझे दो सरसों के बराबर सोने की जरूरत है। वही तुमसे माँगने आया हूँ। कर्ण कहते हैं-दो सरसों के बराबर सोना बहुत थोड़ा हुआ। ब्राह्मण! आपको अपनी इच्छा के अनुसार सोना मिलेगा, आप मेरे घर पर जाएँ, वहाँ मेरी पत्नी आपको दे देगी। ब्राह्मण वेशधारी भगवान डाँटकर कहते हैं-अरे! सुना था, तुम बड़े दानी हो। क्या यही तुम्हारी दानीवीरता का परिचय है; माँगता हूँ तुमसे और तुम बहाना बनाते हो-मेरी पत्नी के पास जाओ। देना है तो दो, नहीं तो साफ कह दो। ‘उस दाता सेा सूम भला, जो तुरत दे जबाब।’ कर्ण कहते हैं-रुकिए ब्राह्मण देव! कर्ण को याद हो आता है कि उसके दाँत सोने के बने हुए हैं। उन्होंने कहा-लीजिए ब्राह्मम देवता! अब तो मैं दुनियाा से जा रहा हूँ। आप मेरे दाँतों को तोड़कर सोना ले लीजिए।
ब्राह्ममवेशधारी भगवान कहते है-छिः ब्राह्मण का यही काम है-दूसरे के दाँत तोड़ना। यही सिखलाते हो तुम मुझको। रखो तुम अपना सोना। विनयपूर्वक कण कहते हैं, रुकिए मैं ही देता हूँ; लेकिन मुझमें तो शक्ति नहीं है। एक पत्थर मुझे दे दीजिए, उस पत्थर से दाँत तोड़कर मै आपको दे दूँगा। भगवान ने कहा-वाह रे दानी! मुझसे पत्थर ढुला लोगे, उसके बदले सोना दोगे और दानी भी कहलाओगे! यह मेरी मजदूरी हुई कि तुम्हारी दानवीरता? कर्ण जैसे-तैसे घिसकते हैं। घिसकते-घिसकते पत्थर के पास जाते हैं और अपना मुँह उसपर दे मारते हैं। सारे दाँत झड़ जाते हैं लहू-लुहान होकर दाँत निकालते हैं। कर्ण अपने हाथ में ले लेते हैं और कहते हैं-लीजिए ब्राह्मण देवता! ब्राह्मणरूपी भगवान आगे आते हैं, देखते हैं दाँत लहू-लुहान हैं। बिगड़ उठते हैं और कहते हैं-यही रक्त-रंजित जूठा सोना मुझको दोगे। रखो, तुम अपना सोना। कर्ण कहते हैं-रुकिए विप्र देव! मैं आपको स्वच्छ सोना देता हूँ। फिर येन-केन प्रकारेण शरीर की सँभालकर वे पृथ्वी में तीर मारते हैं। उससे पानी निकलाता है। उस पानी से उन दाँतों को साफ करके कहते हैं और कहते हैं-कर्ण! मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये। माँगो, तुम क्या वरदान माँगते हो। कर्ण कहते हैं-केशव! कर्ण तो देना जानता है, लेना नहीं। अगर आप देना ही चाहते हैं, तो आप इस अन्तिम समय में अपना दर्शन दे रहे हैं। मुझे इससे अधिक और क्या चाहिए! इस तरह कह भगवान के श्रीचरणों में अपना सिर रखकर कर्ण अपने प्राण छोड़ देते हैं।

स्थान: जमशेदपूर दिनांक-26-01-1992


श्रद्धास्पद, पूजनीय महात्मागणों के चरणों में प्रणाम!
विद्वानों का कथन है-बिना कारण के कार्य नहीं होता है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। यहाँ इस विशाल आयोजन को देखकर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इसकी आवश्यकता क्या? अथवा यत्र-तत्र से इतने दर्शनार्थियों की उपस्थिति होने का कारण क्या? उत्तर में निवेदन है-आज अक्षर पुरुषोत्तम संस्था द्वारा यह आयोजन किया गया है पूजनीय योगीजी महाराज का शताब्दी समारोह मनाने हेतु।
न क्षरति इति अक्षरः।
अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता।
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।
(योगशिखोपनिषद्)
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दाब्रह्माति वर्तते।
(गीता)
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन पुरुषों की चर्चा आयी है-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम। श्रीमद्भगवद्गीता अ0 15/16-18 तक पुरुषोत्तम की चर्चा आयी है। पुरुषोत्तम=जो पुरुषो में उत्तम हो। श्रीगीताजी में क्षर पुरुष के परे अक्षर पुरुष और उसके भी परे जो है, उसको पुरुषोत्तम कहा गया है। उक्त संस्था-द्वारा किए गये इस आयोजन से मुझे प्रसन्नता हो रही है। खासकर इतने संत-महात्मा लोग जो पधारे हुए हैं, इनके दर्शन करके मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ। श्रीयोगीजी महाराज की जयन्ती मनायी जा रही है। यह ‘योगी’ शब्द बहुत ऊँचा है। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने तपस्वी, ज्ञानी और सकाम कर्म करनेवालों से भी योगी को श्रेष्ठ बताकर अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा दी है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।46।।
अर्थात् योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों भी श्रेष्ठ है और कर्मकांडियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी बना।
योगी किनको कहते है? इस सम्बन्ध में गुरु नानकदेवजी ने इस प्रकार कहा है-
जोगु न खिथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूड़ाइअै जोग न सिञी वाईअै।।
अंजन माहि निरैजनि रहीअै, जोग जुगति इन पाईअै।।1।।
गजी जोगु न होई।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई।।1।।
जोगब न बाहरि मड़ी मसाणी जोग न ताड़ी लाईअै।
जागु न देसि दिसंतरि भविअै जोग न तीरथि नाईअै।।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।2।।
सतिगुर भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै।
निझर झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै।।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।3।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै, अैसा जोगु कमाईअै।
बाजे बाझहु सिञी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै।।
अंजन माहि निरजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।4।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने योगी के ये लक्षण बतलाए हैं-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखहि सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जग जामिनि जागहि योगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
हमारे पूज्य योगीजी महाराज योग में कुशल थे, पारगंत थे और योगी के समस्त गुणों से युक्त थे।
योग की विविध परिभाषाएँ हैं; यथा-
चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगः। (पातंजलयोग)
चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं।
योगः कर्मसु कौशलम्। (गीता)
समत्वं योग उच्यते। (गीता)
और गुरु नानकदेवजी महाराज ने दृष्टि को एक करनेवाले को ‘योगी’ की संज्ञा दी है। दृष्टि-धारों को एकत्र करने का तात्पर्य क्या है, उद्देश्य क्या है? उत्तर में निवेदन है-
जहाँ हमारी दृष्टि काम करती है, वहाँ हमारा मन भी काम करता है। जब हमारी दृष्टि काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता। उदाहरणार्थ जब हम स्वप्न में रहते हैं, तो उस समय यह हमारा स्थूल शरीर कोई काम नहीं करता है; क्योंकि हमारी स्थूल दृष्टि कोई काम नहीं करती। स्वप्नावस्था में हम मानसिक जगत में रहते हैं; उस समय हमारी मानसिक दृष्टि काम नहीं करता। इसलिए मनोनिरोध के लिए दृष्टि-निरोध की आवश्यकता है। यही हेतु है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि-निरोध करने का उपदेश दिया है।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं दिशश्चानवलोकयन्।।
(गीता, अ0 6/13)
अर्थात् काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अन्य किसी दिशा को नहीं देखते हुए अपनी नासिका के आगे देखो।
विचारणी विषय यह है कि दिशाएँ दश होती है-पूरब, पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, चारो दिशाओं के चारो कोण ऊपर तथा नीचे। जब हम आँखें बन्द करते हैं, तो आठ दिशाएँ तो स्वतः ही छूट जाती हैं; किन्तु ऊपर और नीचे-ये दो दिशाएँ रह जाती हैं। अब यदि हम नाम के नीचे अथवा भ्रूमध्य में देखते हैं, तो कोई-न-कोई एक दिशा हो ही जाती है और भगवान शर्त रखते हैं कि किसी भी दिशा को न देखते हुए नासिकाग्र में दिखो।
यह मात्र संकेत है। इस संकेत को समझने के लिए किसी क्रियावान शुद्धाचारी, भेद-ज्ञाता अथवा किसी संत सद्गुरु के पास जाना आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है-
‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।34।।
(गीता, अ0 4)
अर्थात्-उस ज्ञान को विनम्रता-द्वारा, सेवा-द्वारा और जिज्ञासा-द्वारा जानो। तत्व का दर्शन करनेवाले ज्ञानी महात्मा उस ज्ञान को तुम्हें बताएँगे।
बाइबिल में आया है-‘संकेत फाटक से प्रवेश करो, क्योंकि संकीर्ण है वह मार्ग, जो अमरता को पहुँचाता है और चौड़ा है वह मार्ग, जो मृत्यु को पहुँचाता है।’ और यह भी कहा है-‘शरीर का दीपक आँख है। यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा; परन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो, तो देखो तुम्हारे भीतर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’
हम प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं-‘तमसो मा ज्योमिर्गमय।’ केवल प्रार्थना करने से ही हम प्रकाश में प्रतिष्ठित नहीं हो सकते वेद में आया है-
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय।।
भावार्थ-(अहम्) मैं (एतम्) उस महान्तम् बड़े भारी पुरुषम् ब्रह्माण्ड भर में व्यापक पूर्ण परमेश्वर को (आदित्यवर्णम्) सूर्य के समान तेजस्वी और (तमसः) अन्धकार के परस्तात् दूर विद्यमान वेद जानता और साक्षात् करता हूँ। (तम्) उसको ही (विदित्वा) जानकर (मृत्युम् अति एति) मृत्यु को पार कर जाता है। (अन्यः) दूसरा कोई (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) अभीष्ट मोक्ष-स्थान को प्राप्त करने के लिए न विद्यते) नहीं है।
इस मंत्र में ऋषि ने ‘नान्यः पंथाः’ शब्दों का प्रयोग कर यह दृढ़ कर दिया है कि ईश्वर तक जाने का एक ही रास्ता है और वह रास्ता अपने अन्दर का है, बाहर का नहीं।
परमात्मा ने प्रत्येक इन्द्रिय के लिए एक-एक काम नियुक्त कर दिया है; जैसे आँख का काम देखना, नाक का काम गंध ग्रहण करना, जिह्वा का काम रसास्वादन करना, त्वचा का काम स्पर्श करना, कान का काम शब्द ग्रहण करना। इस भाँति 14 इन्द्रियों में से प्रत्येक का अपना-अपना भिन्न-भिन्न कार्य है। इसी तरह हमारा भी अपना एक काम है और वह है-परमात्मा को जानना। ज्ञातव्य है कि जबतक हम अपने को नहीं जान लेंगे, तबतक परमात्मा को नहीं जान सकेंगे।
जब हम एक बूँद जल की पहचान कर लेते हैं, तो बालटी के जल की पहचान कर लेते हैं; कुएँ और तलाब के जल की पहचान कर लेते हैं। इसलिए आवश्यकता है पहले अपनी पहचान कर लेने की। अपनी अथवा परमात्मा की पहचान जब कभी होगी, तो सर्वप्रथम अपने में, पश्चात् बाहर में। जिज्ञासा होती है कि आत्मा अथवा परमात्मा की पहचान कैसे होगी? संतों ने इसका समाधान किया। उन्होंने बताया-आत्मा वा परमात्मा नामरूपविहीन है।
नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभ्विवर्जितः।।
(तेजोविन्दूपनिषद)
अर्थात्-आत्मा नाम और रूप से विहीन, परज्ञानस्व्रूप, सुखमय, तुरीय से भी अतीत, शुभ और अशुभ से विवर्जित है।
यह संसार नामरूपात्मक है। इसलिए अपने को नामरूप से ऊपर उठाओ। जैसे सरलाक्षर सीखे बिना कोई संयुक्ताक्षर नहीं सीख सकता, उसी प्रकार स्थूल-उपासना किए बिना सूक्ष्म-उपासना करने की योग्यता नहीं हो सकती। स्थूल-उपासना के लिए परम प्रभु परमात्मा के किसी नाम का मानस जप और उनकी किसी विभूति का मानस ध्यान करना चाहिए। तत्पाश्चात् पूणर्् सिमटाव के लिए एकबिन्दूता प्राप्त करनी होगी। एकबिन्दूता प्राप्त होने पर पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है और आवरण-भेदन होता है।
इस प्रकार शाम्भवी मुद्रा वा दृष्टियोग-क्रिया द्वारा एक-विन्दुता प्राप्त करके अन्धकार के आवरण का भेदन करके प्रकाश में प्रतिष्ठित होना होगा। प्रकाश में ही शब्द की अनुभूति होती है। सामवेद में एक मंत्र आया है-
बीजाक्षरं परं विन्दं नादं तस्योपरि स्थितमृ।
स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परम पदम्।।
अर्थात्-परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
रूप-जगत का छोटे-से-छोटा चिह्न विन्दु होता है और अरूप जगद का नाद (शब्द) यानी नाम। दूसरी तरह से हम ऐसा भी कह सकते हैं-यदि हम नदी में डूब रहे हों और वहाँ नाव नहीं हो, कोई सहारा नहीं हो; परन्तु यदि हम तैरना जानते हों, तो जिस पानी में डूब रहे हैं, उसी पानी का सहारा लेकर हम सूखी जमीन पर जा सकेंगे। उसी तरह इस नाम-रूपात्मक संसार-सागर में हम डूब रहे हैं। इससे पार होने के लिए नाम और रूप का ही सहारा लेना पड़ेगा। इस नाम और रूप के सहारे ही हम अनामी और अरूपी परमात्मा तक पहुँच सकेंगे।
इसके लिए पहले स्थूल अवलम्ब मानस जप और मानस ध्यान का सहारा लेंगे। इससे कुछ सिमटाव होगा। पूर्ण सिमटाव एकविन्दुता में होता है। जिसको विन्दु मिलता है, उसको नाद भी मिलता है।
विन्दु में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनै।
(सन्त पलटू साहब)
यह शब्द-धार परम प्रभु परमात्मा से ही निकली हुई है। इसी को आधार बनाकर सर्वाधार परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
बास सुरति ले आवई, सब्द सुरति लै जाय।
परिचय स्त्रुति है इस्थिरे, सो गुरु दई बताय।।
यद्यपि आदिशब्द निर्गुण है, फिर भी त्रयगुण की उत्पत्ति इसी से हुई है। आदिशब्द अनाहत और चेतन है तथा उससे उत्पन्न शब्द अनहद और अचेतन (जड़) है। शब्द का स्वाभिवक गुण हे कि ऊपर शब्द नीचे की ओर दूर तक जाता है; किन्तु नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। शब्द अपने केन्द्र के गुण को संग लिए रहता है और सुननेवाले को केन्द्र में आकर्षित कर उस गुण से संयुक्त करता है।
सभी सद्ग्रन्थ नाद के सहारे परमात्मा तक जाने की बात कहते हैं। इस तरह से पमर पद परमात्मा का साक्षात्कार कर मानव परम कल्याण बना सकता है।

स्थान: गाँधीनगर (अहमदाबाद) दिनांक-18-11-1992






श्री सद्गुरु महाराज की जय!